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2024.04.08 जयन्ती वर्ष 2024.04.08 जयन्ती वर्ष 

जयन्ती, इतिहास और इसकी जड़ें पवित्र बाईबिल में

बाइबिल के विद्वान कार्डिनल जानफ्रांको रवासी, लोस्सेवातोरे रोमानो में पवित्र वर्ष (जयन्ती) की उत्पत्ति को पुराने नियम से लेकर सुसमाचार तक याद करते हैं।

वाटिकन न्यूज

"जुबली" के मूल का पता मेढ़ों के सींग की ध्वनि से लगाने की प्रथा है: प्रतिध्वनि, येरूसालेम से हवा को चीरती हुई आई और एक गाँव से दूसरे गाँव तक पहुँच गई। हिब्रू में बाईबिल के पुराने व्यवस्थान में योबेल शब्द 27 बार आता है। इसमें बेशक छः बार मेढ़ा के सींग के लिए किया गया है। मूल संदर्भ लेवी ग्रंथ के अध्याय 25 में मिलता है। यह एक जटिल पाठ है जिसको लेवी के पुत्रों की पुस्तक में डाला गया है जहाँ येरूसालेम मंदिर में धार्मिक अनुष्ठानों का जिक्र है।

एक दार्शनिक आधार

योबेल शब्द मुख्य रूप से अध्यय 25 में प्रतिध्वनित होता है, लेकिन अध्याय 27 में भी पाया जाता है। प्राचीन बाईबिल के ग्रीक संस्करण में योबेल का अनुवाद जुबली या जयन्ती वर्ष न कर, व्याख्यात्मक रूप से इसे “अफेसिस” किया गया है ग्रीक में जिसका अर्थ है “माफी”, छुटकारा या क्षमादान। ये शब्द येसु के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गये, क्योंकि वे जयन्ती के बारे नहीं बोलते, लेकिन अफेसिस शब्द का प्रयोग करते हैं। वास्तव में, हम नये व्यवस्थान में जयन्ती शब्द ही नहीं पाते हैं। इस तरह प्राचीन बाईबिल अनुवादक एक अत्यंत पवित्र उपासना की वास्तविकता से लेकर प्रायश्चित के तथ्य पर पहुँचे। (जुबली वर्ष का उत्सव जो किप्पुर के समारोह के संबंध में, यानी इज़राइल के पाप के प्रायश्चित के संबंध में, एक बहुत ही विशिष्ट तिथि पर मेढ़े के सींग की आवाज़ के साथ शुरू होता है अर्थात्, इसराइल के पाप का प्रायश्चित) एक नैतिक, अस्तित्व संबंधी अवधारणा के लिए : ऋणों की माफी, दासों की मुक्ति थी (जो जुबली की सामग्री थी)। इस तरह जयन्ती का विषय धार्मिक अनुष्ठान की भाषा से नैतिक सामाजिक अनुभव में बदल गया। यह तत्व आज भी प्रासंगिक है कि जयंती को केवल एक बुनियादी उत्सव या अनुष्ठान तक सीमित न किया जाए बल्कि इसे ख्रीस्तीय जीवन के प्रतिमान में बदला जाए। कुछ विद्वानों का मानना है कि योबेल शब्द मेढ़े के सींग की ध्वनि से नहीं बल्कि हिब्रू मूल “जबल” से जुड़ा है, जिसका अर्थ "स्थगित करना, वापस करना, दूर भेजना है।" हालाँकि, व्याख्या थोड़ी मजबूर प्रतीत होती है क्योंकि "भेजना" मुक्ति का संकेत प्रतीत नहीं होता, इसमें उपरोक्त ग्रीक शब्द एफेसिस भी नहीं है, जिसपर स्वयं येसु ने विशेष जोर दिया है। अन्य दार्शनिकों ने भी कई स्पष्टीकरण पेश किए हैं, लेकिन यह माना जा सकता है कि प्रारंभिक तत्व अनुष्ठान है। लेकिन दूसरी ओर ग्रीक अनुवाद को भी नहीं भूलना चाहिए : यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है बल्कि एक ऐसा तत्व है जिसका लोगों के अनुभव पर गहरा प्रभाव है।

इस परिचय के बाद, हम कुछ मौलिक जयंती विषयों को चित्रित करने का प्रयास करेंगे जो कुछ मायनों में एक-दूसरे से जुड़े हुए दिखाई देते हैं।

भूमि का विश्राम

बाइबिल अनुसार, पहला मूल विषय भूमि का "विश्राम" है। विश्राम योजना के अनुसार, जिसमें समय को बाइबिल परंपरा के भीतर मापा जाता था, पृथ्वी को पहले से ही हर सात साल में आराम करने की अनुमति दी गई थी। लेवी ग्रंथ 25 के संकेतों के अनुसार, पृथ्वी को जुबली वर्ष में भी आराम करना था, जो वर्षों के सात सप्ताहों के बाद, यानी पचासवें वर्ष में होता था। यह प्रतिबद्धता अव्यवहारिक और लागू करने में कठिन प्रतीत होती है। पृथ्वी को एक वर्ष के लिए आराम देना संभव था, विशेषकर, प्राचीन निकट पूर्व जैसी सभ्यता में, जहाँ ज़रूरतें हमारी तुलना में बहुत कम थीं और जीवन बहुत अधिक मितव्ययी था।

भूमि को आराम देने का अर्थ है उसपर बीज नहीं बोना और न ही उसका फसल काटना। यह विकल्प, एक ओर, हमें बतलाता है कि भूमि एक उपहार है, क्योंकि, भले ही कम मात्रा में, यह अभी भी उपज जरूर देती है। इसके फल छोटे हो सकते हैं, लेकिन उनमें कमी नहीं होगी। इस प्रकार हमें याद दिलाया जाता कि प्रकृति का चक्र न केवल मनुष्य के कार्य पर बल्कि निर्माता पर भी निर्भर करता है।

दूसरी ओर, इस अवधि में निजी और जनजातीय संपत्ति पर कब्ज़ा करने का प्रयास किया गया क्योंकि भूमि से जो भी उपजता था घेरे या सीमा पर ध्यान दिये बिना उसे हर कोई ले सकता था। व्यवहारिक तौर पर, यह वस्तुओं के सार्वभौमिक गंतव्य की मान्यता है जिसके अनुसार सब कुछ सभी के लिए उपलब्ध है। यह विषय आज के समाज में भी बहुत महत्व प्राप्त कर सकता है।

मानवता को ऐसे नहीं दर्शाया जा सकता, जहाँ एक खाने की मेज पर कुछ लोगों के पास खाने के ढेर सारे समान हों, और दूसरी तरफ बाकी लोग खड़े होकर केवल कुछ टुकड़ों पर संतोष कर लेने की कोशिश कर रहे हों। जबकि किसी भी निजी संपत्ति से पहले अब वस्तुओं की सार्वभौमिक उपलब्धता का कोई विचार नहीं रह गया है। इस प्रकाश में, पोप फ्राँसिस के विश्वपत्र लौदातो सी द्वारा इस संबंध में प्रस्तावित चिंतन का उल्लेख करना सुझावात्मक है।

कर्जों की माफी और जमीनों का मुआवज़ा

दूसरा विषय है, कर्ज की माफी और बेची गई जमीन को मालिक को वापस लौटाना। बाइबिल की दृष्टि में, भूमि किसी एक व्यक्ति का नहीं बल्कि जनजातियों और घरानों का होता था, जिनमें प्रत्येक का अपना विशेष क्षेत्र था। यह कनान पर जीत हासिल करने के बाद दान के रूप में प्राप्त हुआ था जैसा कि हम योशुआ के ग्रंथ में पढ़ते हैं (योशुआ 13:21) हर बार, विभिन्न कारणों से, घरानों ने अपनी भूमि खो दी, एक निश्चित अर्थ में, ईश्वर द्वारा वांछित विभाजन प्राप्त नहीं किया। जुबली के साथ, यानी, हर आधी शताब्दी में, वादा की गई भूमि का नक्शा फिर से बनाया जाता था, जैसा कि 'ईश्वर इसराइल की जनजातियों के बीच भूमि को विभाजित करने के दिव्य उपहार के माध्यम से चाहते थे। लेवी के गोत्र को छोड़कर अन्य सभी को अपने हिस्से मिले थे और जो मंदिर में अपनी सेवा के लिए अन्य गोत्रों द्वारा दिए गए योगदान पर जीवनयापन करते थे। ऋणों के मामले में भी मूलतः यही होता था। सभी लोगों को समान सम्पति दी गई थी लेकिन बाद में, कुछ लोग दुर्भाग्य से, कुछ आलस्य से या असमर्थता के कारण अपनी संपत्ति खो देते थे। जुबली के समय में सभी को समान सम्पति पुनः प्राप्त होती थीं। यह न केवल भाईचारे और एकजुटता का आदर्श पालन है बल्कि काम करने और ठोस सामाजिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

आइये, हम येरूसालेम की कलीसियाई समुदाय की याद करें जैसा कि संत लूकस ने प्रेरित चरित में कई बार कहा है, “विश्वासियों का समुदाय एक हृदय और एक प्राण था। कोई भी अपनी सम्पति अपनी ही नहीं समझता था। जो कुछ उनके पास था उसमें सबों का साझा था।" (4, 32)

दासों की मुक्ति

बाईबिल में जयन्ती वर्ष का तीसरा विषय है गुलामों की मुक्ति। नबी एजेकिएल के ग्रंथ में जयन्ती वर्ष को मुक्ति के वर्ष के रूप में दर्शाया गया है। (एजे. 46.17) जिस तरह कर्ज माफ किये जाते और भूमि मालिक को वापस की जाती थी उसी तरह गुलामों को मुक्त किया जाना भी जयन्ती वर्ष का मुख्य विषय था। ताकि वे अपने देश और अपने घर लौट सकें। इस मामले में भी यह एक आदर्श प्रस्ताव था, जिसका उद्देश्य एक ऐसे समुदाय का निर्माण करना था जिसके भीतर अब एक दूसरे के प्रति दुर्व्यवहार के बंधन न हों, जिनके पैरों में अब बेड़ियाँ न हों और जो एक लक्ष्य की ओर एकजुट होकर चल सके। यह स्पष्ट है कि इसकी प्रासंगिकता हमारे इतिहास पर भी लागू होती है जिसमें गुलामी के अनगिनत रूप दर्ज हैं: नशीली पदार्थों की लत, वेश्याओं की तस्करी, यौन शोषण और बाल यौन दुराचार और दुर्व्यवहार। हम उन सभी लोगों के बारे में भी सोच सकते हैं जो व्यावहारिक रूप से महाशक्तियों के गुलाम हैं, कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ आर्थिक अत्याचार के कारण, कुछ देशों और समाजों पर अत्याचार करती है।

इसलिए स्वतंत्रता की जयन्ती शब्द की गूंज हमारे समय में भी बहुत महत्व है। विशेषकर आंतरिक मुक्ति के आह्वान की जरूरत है। वास्तव में, कोई भी बाहरी तौर पर स्वतंत्र हो सकता है लेकिन वह आंतरिक रूप से कुछ अदृश्य जंजीरों के माध्यम से गुलाम हो सकता है, जैसे कि सोशल मीडिया, अश्लीलता और सूचना क्षेत्र पर निर्भरता।

नबी येरेमियाह (34, 14-17) 586 ईसा पूर्व, बेबीलोनियों द्वारा येरूशलेम और यहूदिया के पतन और दासता की भविष्यवाणी करते हैं, इस तथ्य पर कि ईश्वर के फैसले को नजरांदाज करते हुए यहूदियों ने जुबली के अवसर पर दासों को मुक्त नहीं किया। स्वार्थ का मतलब था कि स्वतंत्रता के महान आदर्श का पालन नहीं किया गया था, और परिणामस्वरूप ईश्वर की ओर से प्रतिशोध की एक प्रकार की सजा लागू की गई थी जिसने इज़राइल को गुलाम बना लिया था।

येसु की जयन्ती

संत लूकस रचित सुसमाचार के अनुसार, अपने सार्वजनिक उपदेश की शुरुआत में, येसु अपने गाँव, नाज़रेथ के एक सभागृह गये। शनिवार का दिन था, वे पाठ पढ़ने के लिए उठ खड़े हुए और नबी इसायस के ग्रंथ अध्याय 61 से पाठ पढ़ा, “प्रभु का आत्मा मुझपर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिषेक किया है। उसने मुझे भेजा है, जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, बंदियों को मुक्ति का और अंधों को दृष्टिदान का संदेश दूँ। दलितों को स्वतंत्र करूँ और प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ।” (लूक. 4, 18-19) पाठ पर प्रकाश डालते हुए, उन्होंने खुद को एक पूर्ण जयंती का उद्घाटन करने के लिए पिता द्वारा भेजे गए अभिषिक्त के रूप में प्रस्तुत किया, जिसको अब ख्रीस्तीय आत्मा और सच्चाई में मनायेंगे।

पुराने व्यवस्थान के अतिरिक्त ख्रीस्तीय जयन्ती का यह दूसरा आधार है। येसु के शब्दों में, पवित्र वर्ष का क्षितिज ख्रीस्तीय के जीवन का प्रतिमान बन जाता है जो उन सभी कष्टों को स्वीकार करता जो येसु ख्रीस्त और कलीसिया के मिशन की योजनाएँ हैं। प्रभु के अनुग्रह का वर्ष, जो उनकी मुक्ति का वर्ष है इसमें चार कार्य हैं : पहला दरिद्रों को सुसमाचार सुनाना। सुसमाचार का अर्थ है शुभ समाचार, “ईश्वर के राज्य के लिए खुशी का समाचार।” इसे प्राप्त करनेवाले दरिद्र हैं, इस पृथ्वी के सबसे निम्न लोग हैं, जिनके पास राजनीतिक और आर्थिक ताकत नहीं है लेकिन उनका हृदय विश्वास के लिए खुला है। जयंती का उद्देश्य दीन, गरीब, दुःखी लोगों को कलीसिया के केंद्र में लाना है जो अपने जीवन के लिए ईश्वर और दूसरों पर निर्भर करते हैं।

जयन्ती का दूसरा कार्य है मुक्ति। यह इस्राएलियों की जयन्ती में भी शामिल थी। येसु अपनी तुलना एक कैदी के रूप में करते हुए अंतिम न्याय के दिन कहेंगे, “मैं कैदी था और तुम मुझे देखने आये।” (मती. 25, 36).

जयन्ती का तीसरा कार्य है अंधों को दृष्टिदान देना। इस कार्य को येसु ने इस पृथ्वी पर रहते हुए बहुत बार किया। जन्म से अंधे व्यक्ति की चंगाई को याद करें (यो. 9) यह पुराने व्यवस्थान एवं यहूदी परम्परा के अनुसार मसीहा का आगमन था। दरअसल, अंधा आदमी जिस अंधकार में डूबा हुआ है, उसमें भीषण पीड़ा की अभिव्यक्ति ही नहीं, एक प्रतीक भी है। वास्तव में, एक आंतरिक अंधापन है जिसके कारण व्यक्ति हृदय और आत्मा की आंखों से देखने में असमर्थ है। यह एक ऐसा अंधापन है जिसे समाप्त करना कठिन है, शायद शारीरिक अंधेपन से भी ज़्यादा, जो कई लोगों को अपनी चपेट में ले लेता है, जिनकी आत्मा में प्रकाश की किरण डाली जानी चाहिए।

अंत में, चौथी और अंतिम प्रतिबद्धता है, उत्पीड़न से मुक्ति का प्रस्ताव जो न केवल यहूदी जयंती के संबंध में ऊपर उल्लिखित गुलामी है बल्कि इसमें शरीर और आत्मा पर अत्याचार करनेवाली सभी पीड़ाएं और बुराईयां शामिल हैं। इसी पर येसु की संपूर्ण सार्वजनिक प्रेरिताई प्रमाणित करेगी।

अतः मूल ख्रीस्तीय जयंती का आदर्श लक्ष्य है, आध्यात्मिक, नैतिक, अस्तित्व संबंधी कार्यों के प्रति प्रतिबद्धता।

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03 May 2024, 10:53