सेवानिवृत पोप बेनेडिक्ट का निधन : आधिकारिक वेबसाइट से उनकी जीवनी
उषा मनोरमा तिरकी-वाटिकन सिटी
कार्डिनल जोसेफ रतजिंगर, पोप बेनेडिक्ट 16वें का जन्म मारक्टल अम इन्न स्थित पासौ (जर्मनी) धर्मप्रांत में 16 अप्रैल 1927 (पुण्य शनिवार) को हुआ था और बपतिस्मा भी उसी दिन हुआ। उनके पिता एक पुलिस कमीशनर थे जो बावारिया के एक किसान परिवार से आते थे जिनकी आर्थिक स्थिति मध्यमवर्गीय थी। उनकी माता केइम झील पर रिमस्टिंग से एक कारीगर की बेटी थी तथा शादी करने के पूर्व कई हॉटलों में रसोईया के रूप में काम कर चुकी था।
अपना बचपन एवं किशोरावस्था उन्होंने ऑस्ट्रिया की सीमा पर सालज़बर्ग से 30 किलोमीटर दूर त्रौस्टेइन में बिताया। इस पृष्ठभूमि पर जिसको वे "मोजार्ट" के रूप में स्वयं परिभाषित करते हैं, उन्होंने अपना ख्रीस्तीय, मानवीय एवं संस्कृतिक प्रशिक्षण प्राप्त किया।
उनके युवास्था का काल आसान नहीं था। परिवार की शिक्षा एवं विश्वास ने उन्हें उस समय की कठिन परिस्थिति का सामना करने हेतु तैयार किया जिसमें नाजी शासन ने काथलिक कलीसिया के खिलाफ बड़ी शत्रुता का माहौल उत्पन्न किया। युवा जोसेफ ने देखा कि नाजी ने किस तरह पल्ली पुरोहित को ख्रीस्तयाग के पहले मार डाला।
इस जटिल परिस्थिति में निश्चित रूप से, उन्होंने ख्रीस्त में विश्वास की सुंदरता और सत्य की खोज की; इसके लिए एक मूलभूत भूमिका उनके परिवार का मनोभाव था, जिसने हमेशा कलीसिया से जुड़े होने में निहित भलाई और आशा का स्पष्ट साक्ष्य दिया।
सन् 1944 को सितम्बर माह के अंत में उन्हें सहायक एंटी-एयरक्राफ्ट सेवा हेतु नियुक्त किया गया।
पुरोहिताई
सन् 1946 से 1951 तक उन्होंने बावेएरिया के म्यूनिक विश्वविद्यालय एवं फ्रेइसंग से दर्शनशास्त्र एवं ईशशास्त्र का अध्ययन किया।
उनका पुरोहिताभिषेक 29 जून 1951 को हुआ था। एक साल बाद उन्होंने हाई स्कूल ऑफ फ्रीजिंग में पढ़ाई की।
सन् 1953 ई. में उन्होंने "संत अगुस्टीन की कलीसिया के सिद्धांत में ईश्वर की प्रजा एवं घर" पर डॉक्टर की उपाधि हासिल की। चार साल बाद, मूलभूत ईशशास्त्र के प्रसिद्ध प्रोफेसर गोत्तलिएब सोहंगन के निर्देशन में, उन्होंने "संत बोनाबेनतूरा के ईशशास्त्र के इतिहास" पर एक निबंध के साथ शिक्षण योग्यता प्राप्त की।
फ्रेइसिंग में ईशशास्त्र एवं दर्शनशास्त्र महाविद्यालय में सिद्धांतवादी एवं मूलभूत ईशशास्त्र की शिक्षा देने के बाद, उन्होंने बोन्न में 1959 से 1963 तक, मुनस्टर में 1963 से 1966 तक तथा तुबिंगेन में 1966 से 1969 तक शिक्षा दी। बाद में वे रातिसबोना विश्वविद्यालय में सिद्धांतशास्त्र (डोगमाटिक) एवं सिद्धांतवाद (डोगमा) के इतिहास के प्रध्यापक रहे और उसी समय वे कॉलेज के उपाध्यक्ष भी रहे।
सन् 1962 से 1965 के बीच उन्होंने द्वितीय वाटिकन महासभा को विशेष योगदान दिया। उन्होंने एक विशेषज्ञ के रूप में कोलोनिया के महाधर्माध्यक्ष कार्डिनल जोसेफ फ्रिंग्स को ईशशास्त्री सलाहकार के रूप में सहयोग दिया।
एक तीव्र वैज्ञानिक गतिविधि ने उन्हें जर्मन धर्माध्यक्षीय सम्मेलन और अंतर्राष्ट्रीय धर्मशास्त्र आयोग की सेवा में महत्वपूर्ण कार्यों को करने के लिए प्रेरित किया।
सन् 1972 में हंस उर्स वॉन बालथासार, लुबक के हेनरी तथा अन्य महान ईशशास्त्रियों के साथ उन्होंने एक ईशशास्त्रीय पत्रिका "कोमुनियो" की शुरूआत की।
धर्माध्यक्ष एवं कार्डिनल
25 मार्च 1977 को संत पापा पौल षष्ठम ने उन्हें म्यूनिक एवं फ्रेसिंगा का महाधर्माध्यक्ष नियुक्त किया तथा उन्होंने 28 मई को धर्माध्यक्षीय अभिषेक प्राप्त किया। वे प्रथम धर्मप्रांतीय पुरोहित थे जिन्होंने 80 वर्षों बाद महान बावारियन महाधर्मप्रांत के प्रशासन का भार प्राप्त किया था।
धर्माध्यक्ष के रूप में उन्होंने एक आदर्श वाक्य चुना, "सच्चाई के सहयोगी" और स्वयं उन्होंने उसकी व्याख्या दी ˸ एक ओर, मुझे ऐसा लगा कि यह एक प्रोफेसर के रूप में मेरे पिछले कार्य और नए मिशन के बीच संबंध था। यहां तक कि विभिन्न तरीकों से, क्या था और क्या जारी रखना था, उनकी सेवा हेतु खेल में रहने के लिए सच्चाई का पालन करना था, और दूसरी ओर, मैंने इस आदर्शवाक्य को चुना है क्योंकि आज के विश्व में सच्चाई की विषयवस्तु को लगभग पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया गया है, वास्तव में, मनुष्य के लिए यह बहुत बड़ी बात मालूम पड़ती है, इस तथ्य के बावजूद कि अगर सत्य की कमी है तो सब कुछ टूट जाता है।"
संत पापा पौल षष्ठम ने उसी साल 27 जून की सभा में उन्हें "तिबुरतीना के संत मरिया दुःखियों की दिलासा" गिरजाघर के संरक्षक बनाते हुए उन्हें कार्डिनल नियुक्त किया।
सन् 1978 में कार्डिनल रतजिंगर ने संत पापा चुनाव सभा (कॉनक्लेव) में भाग लिया जो 25 से 26 अगस्त तक था जिसमें जॉन पौल प्रथम संत पापा चुने गये थे जिन्होंने उन्हें इक्वाडोर के ग्वायाकिल, में 16 से 24 सितम्बर तक आयोजित अंतर्राष्ट्रीय मैरोलॉजिकल कांग्रेस का विशेष दूत नियुक्त किया था। उसी साल के अक्टूबर माह में उन्होंने पुनः पोप चुनाव सभा में भाग लिया जिसने संत पापा जॉन पौल द्वितीय का चुनाव किया।
उन्होंने सन् 1980 में आयोजित पाँचवीं धर्माध्यक्षीय धर्मसभा की अध्यक्षता की जिसकी विषयवस्तु थी, "आधुनिक विश्व में ख्रीस्तीय परिवारों की प्रेरिताई" तथा सन् 1983 में छटवीं आमसभा के भी अध्यक्ष रहे थे जिसकी विषयवस्तु थी, "कलीसिया की प्रेरिताई में मेल-मिलाप तथा पश्चाताप।"
अध्यक्ष
संत पापा जॉन पौल द्वितीय ने 25 नवम्बर 1981 को उन्हें विश्वास के सिद्धांत के लिए गठित परमधर्मपीठीय धर्मसंघ तथा परमधर्मपीठीय बाईबिल आयोग एवं अंतरराष्ट्रीय ईशशास्त्रीय आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया। 15 फरवरी 1982 को उन्होंने मोनाको और फ्रीसिंगा महाधर्मप्रांत से महाधर्माध्यक्ष पद को त्याग दिया। 5 अप्रैल 1993 को वे संत पापा द्वारा ऑर्डर ऑफ विशप के लिए नियुक्त किये गये तथा उन्हें वेल्लेत्री - सेन्यी का उपनगरीय मुख्यालय सौंपा गया।
वे काथलिक कलीसिया की धर्मशिक्षा की तैयारी हेतु गठित आयोग के अध्यक्ष थे जिसमें छः वर्षों के काम करने के बाद (1986-1992) संत पापा को नई धर्म शिक्षा प्रस्तुत की।
संत पापा जॉन पौल द्वितीय ने 6 नवम्बर 1998 को, ऑर्डर ऑफ विशप के कार्डिनलों द्वारा कार्डिनलों के सहायक डीन के रूप में उनकी नियुक्ति को अनुमोदन दिया। 30 नवम्बर 2002 को एक अन्य डीन के साथ उन्हें ओस्तिया का उपनगरीय मुख्यालय सौंपा गया। जर्मनी के पादेरबोर्न धर्मप्रांत की स्थापना की 12वीं शतवर्षीय जयन्ती के अवसर पर, संत पापा ने उन्हें अपना विशेष दूत नियुक्त किया था जिसे 3 जनवरी 1999 को मनाया गया। 13 नवम्बर 2000 से वे परमधर्मपीठीय अकादमी ऑफ साइंस के मानद अकादमिक थे।
शिक्षक
11 फरवरी 2013 को संत घोषणा के लिए आयोजित सामान्य लोक सभा परिषद के दौरान परमाध्यक्ष के पद से इस्तीफा देने के निर्णय की जानकारी इस प्रकार दी, "ईश्वर के सम्मुख बार-बार अंतःकरण की जाँच करने के बाद, मैं इस निश्चय पर पहुँच गया हूँ कि मेरी ताकतें, अधिक उम्र होने के कारण, उपयुक्त नहीं हैं कि मैं परमाध्यक्ष के इस मिशन को सही तरीके से पूरा कर सकूँ। मैं पूरी तरह सचेत हूँ कि यह मिशन, अपने आध्यात्मिक मर्म के लिए, उसे न केवल कार्यों और शब्दों से पूरा किया जाना चाहिए किन्तु त्याग एवं प्रार्थना के द्वारा भी। फिर भी आज की दुनिया में, तेजी से परिवर्तन के दौर में और विश्वास के जीवन के लिए महान महत्व के मुद्दों से प्रेरित, संत पेत्रुस की नाव को खेने तथा सुसमाचार का प्रचार करने के लिए शरीर और आत्मा दोनों में शक्ति की आवश्यकता है। वह शक्ति मुझमें कुछ महीनों से कम महसूस हो रही है जो मुझे सौंपे गये मिशन में असमर्थता का एहसास दिला रही है। इस कारण से, अपने कार्य की गंभीरता को समझते हुए, पूरी स्वतंत्रता से, मैं पेत्रुस के उतराधिकारी, रोम के धर्माध्यक्ष होने के मिशन को त्याग देने की घोषणा करता हूँ। इस प्रकार उनका परमाध्यक्षीय काल 28 फरवरी 2013 को समाप्त हो गया। इसके बाद वे वाटिकन में "मातेर एक्लेसिया" एकान्तवास में ससम्मान सेवानिवृत संत पापा के रूप में रहने लगे।
परमधर्माध्यक्षीय रोमी कार्यालय में वे, विदेश सचिव, ऑरियंटल कलीसियाओं के धर्मसंघ, दिव्य उपासना एवं संस्कारों, धर्माध्यक्षों, लोकधर्मी सुसमाचार प्रचार, काथलिक शिक्षा, याजकों एवं संत प्रकरण परिषद, ख्रीस्तीय एकता एवं संस्कृति को प्रोत्साहन, प्रेरितिक अदालत, लातीनी अमरीका के लिए परमधर्मपीठीय आयोग, एक्लेसिया देई, कलीसियाई कानून की प्रमाणिक व्याख्या तथा ऑरियंटल कलीसियाई कानून के संशोधन हेतु गठित परमधर्मपीठीय समितियों में रहे।
अपने कई प्रकाशनों के बीच, "ख्रीस्तीय धर्म का परिचय" नामक किताब का एक खास स्थान है। उन्होंने 1968 में विश्वास की अभिव्यक्ति पर विश्वविद्यालय व्याख्यान के पाठ्यक्रम, "डोगमा एवं धर्मापदेश (1973), निबंध, प्रवचन तथा प्रेरितिक देखभाल हेतु चिंतन आदि प्रकाशित किया।
"मैं क्यों अब तक कलीसिया में हूँ" विषय पर बावारियन अकादमी के सामने उन्होंने स्पष्टता से जो भाषण दिया उसके द्वारा उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि "ख्रीस्तीय होना मात्र कलीसिया में संभव है, कलीसिया की सीमा रेखा पर नहीं।"
वर्षों के अंतराल में उनके कई किताब लगातार प्रकाशित होते रहे, जो कई लोगों के लिए संदर्भ बिंदु बने, विशेषकर, जो ईशशास्त्र में अपना अध्ययन गहरा करना चाहते थे। सन् 1985 में उन्होंने साक्षात्कार की एक किताब प्रकशित की जिसका शीर्षक है "विश्वास पर रिपोर्ट" उसके बाद 1996 में "पृथ्वी के नमक"। अपने 70वें जन्म दिवस पर उन्होंने "सच्चाई के स्कूल में" नामक किताब का विमोचन किया जिसमें कई लेखकों ने उनके व्यक्तित्व एवं कार्यों पर प्रकाश डाला है।
वे डॉक्टर के कई सम्मानों से सम्मानित किये गये, विशेषकर, सन् 1984 में अमरीका के संत पौल स्थित संत थॉमस कॉलेज से, सन् 1986 में काथलिक विश्वविद्यालय लीमा से, सन् 1987 में काथलिक विश्व विद्यालय एक्सटाट से, सन् 1988 में लुबलिन काथलिक विश्व विद्यालय से, 1998 में स्पेन के नावारा विश्वविद्यालय से, सन् 1999 में संत मरिया असुन्ता आजाद विश्वविद्यालय से तथा 2000 में पोलैंड के ब्रेसलाविया विश्वविद्यालय के ईशशास्त्र विभाग से।
पोप
19 अप्रैल 2005 को जोसेफ कार्डिनल रतजिंगर को 265वें पोप के रूप में चुना गया। वे 1730 के बाद पोप चुने जानेवाले सबसे उम्रदराज़ व्यक्ति थे, और 1724 से किसी भी पोप की तुलना में लंबे समय तक कार्डिनल रहे।
11 फरवरी 2013 को, संत घोषणा के लिए वोट हेतु सामान्य सार्वजनिक सहमति की सभा के दौरान, पोप बेनेडिक्ट ने परमाध्यक्ष पद से इस्तीफा देने का फैसला किया। 28 फरवरी 2013 को उनका परमाध्यक्षीय कार्यकाल समाप्त हो गया। उन्होंने अपने इस शब्दों के संग नेवानिवृति की घोषणा की-
“ईश्वर के सम्मुख अपने अंतःकरण की जांच के उपरांत, मैं इस निश्चितता पर पहुंचा हूँ कि मेरी शक्ति, उम्र के कारण, संत पेत्रुस के सिंहासन की प्रेरिताई जो जारी रखने हेतु उपयुक्त नहीं है। मैं इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हूँ कि यह प्रेरिताई, इसकी अपनी आवश्यक आध्यात्मिक प्रकृति के कारण, न केवल शब्दों और कर्मों में, बल्कि प्रार्थना और कष्ट के वहन में कम नहीं होना चाहिए। हालांकि, आज की दुनिया में, जहाँ परिवर्तन में तीव्रता और विश्वास के जीवन हेतु गहरी प्रासंगिकता के सवाल आते, संत पेत्रुत की नौका को नियंत्रित करने और सुसमाचार की घोषणा के लिए, दिमाग और शरीर दोनों को शक्तिशाली होने की आवश्यकता है, मेरी शक्ति के संबंध में, पिछले कुछ महीनों में इस में कुछ हद तक गिरावट आई है, अतः इस प्रेरिताई को पर्याप्त रूप से पूरा करने में मैं अपनी अक्षमता को स्वीकारता हूँ। इस कारण से, इस उत्तरदायित्व की गंभीरता को समझते हुए, मैं अपनी पूरी स्वतंत्रता में संत पेत्रुस के उत्तराधिकारी, रोम के धर्माध्यक्षीय परमधर्मपीठ से नेवानिवृति की घोषणा करता हूँ।”
उनके इस्तीफे के प्रभावी होने के बाद, ससम्मान सेवानिवृत संत पापा बेनेडिक्ट सोलहवें वाटिकन के भीतर मातेर एक्लेसिया मठ में अपनी मृत्यु तक रहे।
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