संत पापाः शिक्षा विकास का दीप
संत पापा फ्रांसिस ने अपने बुधावरीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर संत पेत्रुस महागिरजाघर के प्राँगण में एकत्रित सभी विश्वासियों को संबोधित करते हुए कहा प्रिय भाइयो एवं बहनो, सुप्रभात।
इस भीषण गर्मी में भी यहाँ आने के लिए धन्यवाद।
प्रेरितिक उत्साह पर अपनी धर्मशिक्षा माला में हम विभिन्न समय और परिस्थितियों के नर और नारियों के अनुकरणीय उदाहरणों की चर्चा कर रहे हैं, जिन्होंने सुसमाचार के खातिर अपने जीवन को अर्पित किया है। इस संदर्भ में आज हम ओशनिया की ओर चलते हैं, एक महादेश जो छोटे-बड़े बहुत से द्वीपों से बना है। ख्रीस्त में अपने विश्वास को जिसे बहुत सारे यूरोपीय प्रवासियों ने उन द्वीपों में जीया, जल्द ही अपनी जड़ों में मूजबत होते हुए अत्यधिक फलप्रद हुए। उनमें से एक अतिविशिष्ट धर्मसंघी बहन, मेरी मैककिलोप (1842-1909) रहीं जिन्होंने संत योसेफ के पवित्र हृदय की धर्मबहनों का धर्मसमाज की शुरूआत की। उन्होंने अपने जीवन को ग्रामीण ऑस्ट्रेलिया के गरीबों की बैद्धिक और धार्मिक प्रशिक्षण में समर्पित कर दिया।
मेरी मैककिलोप की जीवन गाथा
मेरी मैककिलोप का जन्म मेलर्बन के निकट एक माता-पिता से हुआ जो स्कॉटलैंड से ऑस्ट्रेलिया के लिए प्रवासन किये। एक युवती के रूप में उन्होंने ईश्वर के बुलावे का अनुभव किया जिससे वे उनकी सेवा करते हुए साक्ष्य दे सकें न केवल शब्दों में बल्कि उनसे भी बढ़कर ईश्वरीय उपस्थिति में, अपने एक परिवर्तित जीवन के द्वारा (एभनजेली गैदियुम, 259)। मरियम मगदलेना की भांति, जो पुनर्जीवित प्रभु से मिलन के उपरांत उसे शिष्यों के बीच घोषित करने हेतु भेजी गयीं, मेरी अपने में इस बात से विश्वस्त थी कि ईश्वर ने उन्हें अपने शुभ संदेश को घोषित करने और दूसरों को जीवंत ईश्वर से मिलन हेतु आकर्षित करने हेतु भेजी गई है।
समय की निशानियों को बेहतर ढ़ंग से पढ़ते हुए, उन्होंने इस बात को समझा कि इस कार्य को बेहतर रुप में करने हेतु उसे युवाओं को शिक्षित करना है, इस भांति ख्रीस्तीय ज्ञान की शिक्षा को वह सुसमाचार प्रचार स्वरुप देखती है। इस तरह, यदि हम कह सकते हैं कि “हर संत एक प्रेरिताई है, जो ईश्वर की ओर से सुसमाचार की एक निश्चित विषयवस्तु को, इतिहास के एक विशिष्ट समय में जीने और आलोकित करने को सुनियोजित किया गया है” (गऊदाते एत एक्सुलताते,19) तो इस संदर्भ में, मेरी मैककिलोप ने विद्यालयों की स्थापना करते हुए ऐसा किया।
गरीबों की सेवा, पवित्रता का मार्ग
सुसमाचार के प्रति उनका उत्साह विशेष रुप से गरीबों और दबे कुचले लोगों की सेवा के रुप में प्रकट हुआ। संत पापा फ्रांसिस ने गरीबों और दीन-हीनों की सेवा को अति महत्वपूर्ण बतलाते हुए कहा कि उनकी सेवा हम ख्रीस्तीयों के लिए संत बनने के मार्ग हैं। वे हमारे जीवन में नायकों की भांति हैं जिनकी सेवा में अपने को समर्पित किये बिना हम अपने जीवन में पवित्रता के मार्ग में आगे नहीं बढ़ सकते हैं। वे गरीब ईश्वर की उपस्थिति में रहते हैं, जिन्हें ईश्वरीय सहायता की जरुरत होती है। संत पापा ने अपने विचारों को व्यक्त करते हुए कहा कि एक बार पढ़ते हुए मैंने एक वाक्य को पाया जिसे मैं प्रभावित हुआ, “कहानी का नायक दरिद्र है”। ये वे हैं जो अन्याय की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कराते हैं, जो दुनिया की सबसे बड़ी गरीबी है। आज हथियारों में धन खर्च किया जाता है खाद्य पदार्थो के निर्माण में नहीं। हम इस बात को याद करें कि यदि हम किसी रुप में गरीबों, जरुरतमंदों, समाज के हाशिए में पड़े लोगों की सेवा नहीं करते, तो यह हममें पवित्रता के अभाव को प्रकट करता है। गरीबों के प्रति सेवा के इस भाव ने मेरी को उन स्थानों में जाने को प्रेरित किया जहाँ दूसरे नहीं जा सकते थे। 19 मार्च सन् 1866, संत योसेफ के पर्व दिवस में उन्होंने दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया के एक छोटे शहर में प्रथम विद्यालय की शुरूआत की। इसके बाद उनकी धर्मबहनों ने ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के ग्रामीण समुदायों में और बहुत सारे विद्यालय खोले।
शिक्षा विकास का स्रोत
संत पापा ने कहा कि मेरी मैककिलोप इस बात से आश्वस्त थी की शिक्षा के द्वारा एक व्यक्ति के रूप में और समुदाय के सदस्य के रूप में व्यक्ति का अभिन्न विकास होता है और इसके लिए जरूरी यह है कि हर शिक्षक अपने में विवेकी, धैर्य, और करूणा को धरण करे। वास्तव में, शिक्षा विचारों को दिमाग में भरना मात्र नहीं बल्कि विद्यार्थियों का सहचर्य और उन्हें प्रोत्साहन देना है जिससे वे मानवता और आध्यात्मिकता के मार्ग में बढ़ सकें। यह पुनर्जीवित येसु की मित्रता को व्यक्त करना है जो हमारे हृदय और जीवन को मानवीय बनाता है। यह दृष्टि आज पूर्णतः प्रासंगिक है, जहाँ हम शिक्षा के प्रभाव का अनुभव करते हैं जो हमारे परिवारों को, विद्यालयों और समाज को पूरी तरह पिरोकर रखती है।
प्रेरितिक कार्य
गरीबों के बीच सुसमाचार प्रचार के प्रति मेरी मैककिलोप के उत्साह ने उन्हें कई करूणामय कार्यो को शुरू करने को प्रेरित किया, जो एडिलेड में “विधाता निवास” से शुरू हुई जहाँ बुजुर्गों और परित्यक्त बच्चों को शरण दिया गया। मेरी ईश्वर की कृपा पर बेहद विश्वास करती थी- वह सदैव यह विश्वास करती थी कि ईश्वर किसी भी परिस्थिति में उन्हें कृपा से भर देंगे। लेकिन इस बात ने उन्हें अपने प्रेरितिक कार्यों के संबंध में चिंताओं और कठिनाइयों से निजात नहीं दिलाया, जिसके कई कारण थे- उन्हें बिलों का भुगतान करना था, स्थानीय धर्माध्यक्षों और पुरोहितों से तालमेल स्थापित करना था, विद्यालयों का संचालन करना और अपनी धर्मबहनों के व्यावसायिक और आध्यात्मिक प्रशिक्षण की देख-रेख करनी थी, और बाद में उन्हें स्वास्थ्य की समस्याएं हुई। इस सारी चीजें के बावजूद वे अपने में शांत, धैर्य में अपने क्रूस को वहन करती थी जो प्रेरिताई का अहम भाग है।
ईश्वर में विश्वास
एक परिस्थिति में, क्रूस विजय महोत्सव पर्व के दिन, मेरी ने अपनी धर्मबहनों में से एक को कहा, “मेरी पुत्री, मैंने बहुत सालों से क्रूस को प्रेम करना सीखा है।” वे अपनी परीक्षा और जीवन में अंधेरे की घड़ी में विचलित नहीं हुई, जब उनकी खुशी विरोध और अस्वीकृति से धूमिल हो जाती थी। वह इस बात से विश्वस्त थी कि ईश्वर जो उन्हें “विरोध की रोटी और दुःख का जल प्रदान करते” (इसा.30.20), वे स्वयं तुरंत उसकी पुकार को सुनेंगे और उन्हें अपनी कृपा से भर देंगे। यह उसकी प्रेरितिक उत्साह का रहस्य था।
प्रिय भाइयो एवं बहनों संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि मेरी मैककिलोप का प्रेरितिक शिष्य होना, कलीसिया की आवश्यकताओं के समय में उनका प्रत्युत्तर और युवाओं के प्रशिक्षण हेतु उनका समर्पण आज हम सबों को प्रेरित करता है। यह हमें आज के बदलते हुए सामाजिक परिवेशों में सुसमाचार का खमीर बनने को निमंत्रण देता है। उनका उदाहरण और उनकी प्रार्थना हम प्रतिदिन कार्य करने वाले अभिभावकों, शिक्षकों, प्रचारकों और सभी शिक्षकों को सहायता प्रदान करें जिससे हम युवाओं के लिए अपने को दे सकें जो हमारे भविष्य को और अधिक मानवीय और आशामय बने रहने को मदद करेगा।
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