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संत पापाः सुसमाचार प्रचार अपने से बाहर जाने की मांग है

संत पापा फ्रांसिस का बुधवारीय आमदर्शन समारोह संत पापा पौल षष्ठम के सभागार में समापन हुआ।

वाटिकन सिटी

संत पापा ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर सभी विश्वासियों और तीर्थयात्रियों का अभिवादन करते हुए कहा, प्रिय भाइयो एवं बहनो, सुप्रभात और स्वागतम।

अपने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि आज की धर्मशिक्षा माला को मान्यवर फिलिप्पो चम्पानेल्ली प्रस्तुत करेंगे।   

विगत दिनों में हमने ख्रीस्तीय सुसमाचार की उद्घोषणा को एक खुशी कहा जो सभों के लिए है, आज हम इसके तीसरे पहलू पर विचार करेंगे जो इसे “आज की बात” कहती है।

दुनिया की स्थिति

एक व्यक्ति आज हमेशा ही बुरी चीजों के बारे में सुनता है। निश्चित रुप से युद्धों, जलवायु  परिवर्तन, वैश्विक अन्याय और पलायन, परिवार और आशा के संकट- हम असंख्य चिंतित करने वाली बातें सुनते हैं। सामान्य रुप से कहा जाये तो आज की संस्कृति में व्यक्ति विशेष सारी चीजों से ऊपर है और हर क्षेत्र में तकनीकी विकास जीवन का क्रेन्द-विन्दु बन गया है जिसमें बहुत सारी मुसीबतों के निदान की क्षमता है। वहीं, व्यक्तिगत-तकनीकी विकास की संस्कृति एक स्वतंत्रता का एहसास दिलाती है जो अपनी सीमा में रहना नहीं चाहती और इस भांति यह उनके संग उदासीनता से पेश आती है जो अपने में पिछड़े हैं। अतः, यह मानवीय बड़ी आकांक्षाओं को अक्सर अर्थव्यवस्था तक सीमित कर देती है, और यह उनका परित्याग करती है जो उत्पादक नहीं होते और अपनी स्थितरता से परे जाने हेतु संघर्ष करते हैं। हम अपने को इतिहास के उस प्रथम सभ्यता से जोड़े हैं जो ईश्वरीय उपस्थिति के बिना एक मानव समाज का निर्माण करती है।

बाबेल का आदर्श

यह हमें बाबेल के गुम्बद की याद दिलाती है जो समाज में एक परियोजना की चर्चा करता है जिसमें सामूहिकता की दक्षता के लिए समस्त वैयक्तिकता का त्याग शामिल है। वहाँ मानवता में हम एक भाषा को पाते हैं- जिसे हम “एक ही तरह की सोच” कह सकते हैं”। तब ईश्वर उनकी भाषाओं को भ्रमित कर देते हैं, अर्थात वे उनकी विभिन्नताओं को पुनः स्थापित करते हैं, विशिष्टता के विकास हेतु परिस्थितियों को फिर से स्थापित करते हैं, वे अनेकता को पुनर्जीवित करते हैं जहाँ आदर्श विचार अपने को थोपने की कोशिश करती है। ईश्वर मानवीय सर्वशक्तिमत्ता के भ्रम को तोड़ते हैं जो अपने में यह घोषित करता है, “आइए हम अपने लिए एक नाम स्थापित करे”, बाबेल के महान निवासी स्वर्ग तक पहुंचने की चाहते रखते हैं, वे अपने को ईश्वर के स्थान पर रखना चाहते हैं। लेकिन ये खतरनाक, विमुख करने वाली, विनाशकारी महत्वाकांक्षाएं हैं, और ईश्वर मानव की रक्षा करते और आने वाली आपदा से उन्हें बचाते हैं। वास्तव में, यह कहानी वर्तमान परिस्थिति को उजागर करती है- आज भी, एकजुटता जो भाईचारा और शांति के लिए होना चाहिए, लेकिन इसके बदले एकजुटता को हम अक्सर महत्वाकांक्षा, राष्ट्रवाद, समरूपता और तकनीकी-आर्थिक संरचनाओं पर आधारित पाते हैं जो इस धारणा को जन्म देती है कि ईश्वर महत्वहीन और व्यर्थ हैं: यह इसलिए नहीं कि कोई अधिक ज्ञान की चाह रखता है, लेकिन इसलिए की उन्हें शक्तिशाली बनना है। यह एक प्रलोभन है जो आज की संस्कृति की बड़ी चुनौतियों में व्याप्त है।

सुसमाचार साक्ष्य में प्रसारित

सुसमाचार प्रचार के संबंध में संत पापा फ्रांसिस ने एभेनजेली गौदियुम में लिखे गये अपने विचारों को व्यक्त करते हुए कहा कि सुसमाचार का प्रचार हमें नये रुपों में ईश्वर से, दूसरों से और विश्व से संबंध स्थापित करने में मदद करे जिसके फलस्वरुप हम महत्वपूर्ण मूल्यों के द्वारा अपने को प्रेरित होता पायें। यह उन स्थानों तक पहुँचना चाहिए जहाँ नए व्यख्यान और उदाहरण स्थापित किये जा रहे हैं, येसु के वचन को हमारे शहरों की अंतर-आत्मा तक पहुंचाना चाहिए। दूसरे शब्दों में, येसु की घोषणा केवल अपने समय की संस्कृति को अपनाकर ही कर सकते हैं, वर्तमान के बारे में हम प्रेरित पौलुस के शब्दों को हमेशा ध्यान में रखें: “देखो, अब स्वीकार्य समय है; देखो, यह उद्धार का दिन है”। अतः आज के समय को अतीत की वैकल्पिक बातों से तुलना नहीं करना है। न ही प्राप्त उन धार्मिक मान्यताओं को दोहराना ही पर्याप्त है, चाहे वे कितनी ही सच्ची क्यों न हों, समय बीतने के साथ वे अमूर्त हो जाती हैं। कोई भी सत्य अधिक विश्वासनीय इसलिए नहीं होता क्योंकि उसे व्यक्त किया जाता है बल्कि इसलिए क्योंकि हम उसे अपने जीवन में साक्ष्य के रुप में जीते हैं।

सुसमाचार की पुकार, बहार जाना  

प्रेरितिक उत्साह अपने में किसी बात को दुहाराना नहीं है लेकिन वर्तमान जीवन के द्वारा सुसमाचार को जीना है। इस बात की सचेतना में हम अपने युग और संस्कृति को एक उपहार के रुप में देखें। सुसमाचार का प्रचार दूर से किसी के बारे कुछ कहना नहीं और न ही छज्जे में खड़ा होकर येसु के नाम को पुकारना है बल्कि यह गलियों में जाते हुए दूसरों से मिलना है, जो दुःखित हैं, जो विभिन्न तरह के कार्य करते हैं, हमें उनके संग अपने जीवन को साझा करना है जो उनके जीवन को अर्थपूर्ण बनाता है। इसका अर्थ एक कलीसिया होना है, एक खमीर बनना जो वार्ता, मिलन और एकता स्थापित करती है। आख़िरकार, हमारे विश्वास का सार संस्कृतियों, समुदायों और विभिन्न स्थितियों के बीच वार्ता और मेल-मिलाप का फल है। हमें संवाद करने से नहीं डरना नहीं चाहिए: इसके विपरीत, यह टकराव और आलोचना है जो धर्मशास्त्र को विचारधारा में परिवर्तित होने से बचाती है।

प्रेरिताई की शैली, परिवर्तन की मांग

आज चौराहों पर खड़ा होना जरूरी है। उनका परित्याग करने से सुसमाचार में विकृति आयेगी और कलीसिया एक संप्रदाय में बदल कर रह जायेगी। वहीं दूसरी ओर हमारा निरंतर ऐसा करना हम ख्रीस्तीयों को हमारी आशा को नए सिरे से समझने, विश्वास के खजाने से “नई और पुरानी चीजों”  को निकालने और उन्हें दूसरों के संग साझा करने में मदद करती है। संक्षेप में, आज की दुनिया को बदलने के बदले, हमारे चाहिए कि हम प्रेरितिक कार्य में परिवर्तन लायें जो सुसमाचार को देहधारण करेगा। हम येसु के मनोभावों को अपने में धारण करें- जिससे हम सहयात्रियों को मदद कर सकें कि वे येसु की चाह में बने रहें, अपने हृदय को उनके लिए खोलें और उन्हें पायें, आज और हमेशा जो हमें शक्ति और मानवता को खुशी प्रदान करते हैं।  

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29 November 2023, 14:51