संत पापाः पेटूपन एक खतरनाक रोग
वाटिकन सिटी
संत पापा फ्रांसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर संत पापा पौल षष्ठम के सभागार में एकत्रित सभी विश्वासियों और तीर्थयात्रियों का अभिवादन करते हुए कहा, प्रिय भाइयो एवं बहनों सुप्रभात।
गुण और अवगुण पर अपनी धर्मशिक्षा माला की कड़ी में आज हम पेटूपन की बुराई पर विचारमंथन करेंगे।
सुसमाचार इसके बारे में क्या कहता हैॽ हम येसु की ओर देखें। अपने प्रथम चमत्कार, काना के विवाह भोज में, वे मानवीय खुशियों के संबंध में अपनी संवेदनशीलता को प्रकट करते हैं। महोत्सव का अंत अच्छी तरह हो इसके बारे में चिंता करते हुए वे वर-वधू को प्रचुर मात्रा में सर्वोतम अंगूरी प्रदान करते हैं। अपने सभी प्रेरितिक कार्यों में येसु एक अलग ही नबी के रुप में दिखाई देते हैं- वे योहन बपतिस्ता से अलग हैं जो मरूभूमि में जो मिलता खा लेते और अपने में कठोर जीवन व्यतीत करते हैं, वहीं मुक्तिदाता को हम बहुधा मेज में पाते हैं। उनका ऐसा पेश आना कुछेक के लिए लोकनिंदा का कारण बनता है क्योंकि वे पापियों के हितैषी मात्र नहीं बल्कि उनके संग खाते-पीते हैं, येसु का ऐसा करना यह व्यक्त करता है कि वे सभों के निकट रहना चाहते हैं।
हमारा आनंद, येसु की चाह
संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि इससे भी बढ़कर येसु के व्यवहार में हम उन्हें यहूदी संहिता के प्रति पूर्ण अधीन को पाते हैं, यद्यपि वे अपने शिष्यों के प्रति सहानुभूति के भाव रहते हैं- क्योंकि जब उन्हें भूख लगती तो वे गेहूँ की बालियों को मसल कर खाते हैं, येसु उनके इस कार्य को, राजा दाऊद और उनके साथियों का हवाला देते हुए न्यायसंगत घोषित करते हैं जिन्होंने भूखी परिस्थिति में भेंट की पवित्र रोटी खायी। लेकिन इन सारी बातों से बढ़कर येसु एक नया सिंद्धान स्थापित करते हैं, दूल्हा के साथ रहने पर बाराती उपवास नहीं कर सकते हैं, उनके चले जाने पर वे उपवास करेंगे। येसु चाहते हैं कि हम उनके सानिध्य में आनंदित हों- क्योंकि वे हमारे लिए कलीसिया के लिए वर की भांति हैं, इसके साथ ही वे यह भी चाहते हैं कि हम उनके दुःखभोग में भी शामिल हों, जो गरीबों और छोटे लोगों के जीवन की दुःख तकलीफें हैं। यह यही व्यक्त करता है कि येसु सभों के लिए हैं।
शुद्धता और अशुद्धता आंतरिक तथ्य
संत पापा फ्राँसिस ने कहा कि यहाँ एक अलग महत्वपूर्ण तथ्य है जहाँ हम येसु को शुद्ध और अशुद्ध खाद्यों पर अंतर स्पष्ट करता पाते हैं, यह अंतर यहूदी संहिता में पायी जाती थी। अपनी शिक्षा में येसु कहते हैं जो मनुष्य में प्रवेश करता वह उसे अशुद्ध नहीं करता बल्कि जो हृदय से निकलता है वह उसे अशुद्ध करता है। अतः ख्रीस्तयता में हम भोज्य पदार्थ के संबंध में शुद्ध और अशुद्ध के कोई भाव को नहीं पाते हैं क्योंकि ईश्वर के द्वारा सारी खाद्य सामग्री शुद्ध घोषित की गई हैं। संत पापा ने कहा कि येसु हमें स्पष्ट रुप में कहते हैं कि भोज्य पदार्थ के संबंध में, उसे क्या अच्छा और क्या बुरा बनाता है वह उसके संग हमारे आंतिरक संबंध से जुड़ा है। हम इसे अपने दैनिक जीवन में देखते हैं, जब एक व्यक्ति का किसी खाद्य सामग्री से उचित संबंध नहीं होता तो वह उसे तीव्रता में ग्रहण करता मानो वह अपनी क्षुब्धा मिटाने की चाह रखता हो और उसे कभी संतुष्टि नहीं मिलती है। वह भोजन का एक गुलाम बनता और उसका संबंध भोज्य पदार्थ के साथ अच्छा नहीं होता है। येसु भोजन को महत्व देते हैं, सामाजिक खान-पान को भी, जहाँ इसका आयोजन होता है।
भोज्य पदार्थ के प्रभाव
भोजन के संबंध में येसु के द्वारा स्थापित किये गये मूल्यों को हमें पुनर्विचारने की जरुरत है विशेष रुप से उन आरामदेही समाजों में जहाँ हम असंतुलनों और विकृतियों को पाते हैं। कोई बहुत अधिक खाता है तो कोई बहुत कम। बहुत बार लोग अकेलेपन में खाते हैं। खान-पान के संबंध में आज हम कई विकार को पाते हैं जिसके कारण एनोरेक्सिया, बुलिमिया, मोटापा- फैल रहे हैं। और वहीं चिकित्सा और मनोविज्ञान भोजन के साथ हमारे खराब संबंधों से निपटने की कोशिश कर रहे हैं। संत पापा ने कहा कि भोजन के संग हमारे खराब संबंध सभी बीमारियों को जन्म देता है।
आहार ग्रहण के तरीके, व्यक्तित्व की झलक
उन्होंने कहा कि ये सभी बीमारियाँ हैं जो बहुधा कष्टदायक होती हैं जो हमारे मनस और आत्मा से संयुक्त हैं। हमारे खाने के तरीके हमारे आंतरिक स्वरुप को व्यक्त करते हैं- यह हमारे संतुलन या संयमी प्रवृत्ति; कृतज्ञता की भावना या स्वतंत्रता में अहंकारी होने को व्यक्त करता है, जरुरमंदों के संग भोजन साझा करना संवेदनशीलता को व्यक्त करता तो वहीं स्वार्थी होना सारी चीजों को अपने लिए जमा करना है। यह हमारे लिए अति महत्वपूर्ण है, “मुझे बतलाओ तुम कैसे खाते हो और मैं तुम्हें बलताऊंगा कि तुम कैसे प्रवृति के व्यक्ति हो।” संत पापा ने कहा कि हमारे खाने के भाव द्वारा हम आंतरिक स्वभाव, हमारे व्यवहार, अपने मनोवैज्ञानिक विचारों को अभिव्यक्त करते हैं।
उन्होंने कहा कि अतीत के आचार्यों ने पेटूपन की अवगुण को “गैस्टीमर्जी” की संज्ञा दी जिसे हम पेट का पागलपन कह सकते हैं। इसके लिए और एक कहावत है, जीने के लिए खाना, खाने के जीना नहीं। यह एक बुराई है जो हमारे दैनिक जीवन की आवश्यकता पोषण पर आधारित है। हम इसके प्रति सावधान रहें।
पेटूपन एक खतरनाक रोक
संत पापा ने कहा कि यदि हम इसे सामाजिक दृष्टिकोण से परिभाषित करें तो पेटूपन बहुत खतरनाक बुराई है जो पृथ्वी को मार डाल रही है। क्योंकि उन व्यक्तियों का पाप जो केक के एक टुकड़े के सामने टिक नहीं पाते, बहुत विनाश नहीं करता, लेकिन जिस भूख से हम पृथ्वी के चीजों का दोहन कर रहे हैं कुछ सदियों में सभों के भविष्य को जोखिम में डाल देगा। समृद्धि की चाह में हमने सारी चीजों को अपने अधिकार में कर लिया है जबकि हमें उनकी हिफाजत करने की जिम्मेदारी मिली है। यही कारण है कि पेट की क्षुब्धा एक बड़ा पाप है, इसके कारण मानव ने अपने लिए “उपभोक्ताओं” का नाम चुना है। आज समाज में हमें यही नाम से पुकारा जाता है। हम पता भी नहीं कि कब हमने यह नाम अपने लिए पाया। हम “यूख्ररिस्तीय” नर और नारी होने के लिए बुलाये गये थे, जिससे हम कृतज्ञता में भूमि का उपयोग उचित रुप में करें, लेकिन हमने उसका भक्षण किया है। अब हम अनुभव करते हैं कि हमारे पेटूपन ने विश्व की बृहृद हानि की है। हम ईश्वर से निवेदन करें कि वे हमें संयम के मार्ग में चलने की कृपा प्रदान करें जिससे हमारा पेटूपन हमें जीवन को अपने गिरफ्त में न ले।
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