संत पापाः ईर्ष्या और मिथ्याभिमान साथ चलते हैं
वाटिकन सिटी
संत पापा फ्रांसिस ने अपनी अस्वस्थता के बवाजूद बुधवारीय आमदर्शन समारोह में भाग लिया। अपने स्वास्थ्य कारणों से उन्होंने धर्मशिक्षा माला को मन्यावर चम्पनेल्ली से पढ़ने का आग्रह किया।
आज हम दो घातक बुराइयों- ईर्ष्या और मिथ्याभिमान पर चिंतन करते हैं जिन्हें आध्यात्मिक परांपरा की सूची हमें प्रदान करती है।
ईर्ष्यालु व्यक्ति का स्वभाव
यदि हम ईर्ष्या के बारे में धर्मग्रँथ का अध्ययन करें तो यह हमारे लिए सबसे पुरानी बुराइयों में से एक उभर कर आती है। हम काईन में ईर्ष्या के भाव उत्पन्न होता पाते हैं जब वह यह अनुभव करता है कि ईश्वर उसके भाई के बलिदान से खुश हैं। काईन आदम और हेवा की पहली संतान था, अतः उसे अपने पिता की विरासत का एक बड़ा हिस्सा प्राप्त था, फिर भी यह उसके लिए काफी नहीं था। वहीं छोटे भाई को संपत्ति का एक छोटा हिस्सा मिला था और काईन उससे कुद्र था। ईर्ष्यालु व्यक्ति अपने में सदैव उदास रहता है, उसकी निगाहें हमेशा नीचे की ओर झुकी हुई होती हैं मानो वह भूमि पर कुछ खोज रहा हो, लेकिन वास्तव में वह कुछ नहीं देखता है, क्योंकि उसका मन बुरे विचारों से भरा हुआ होता है। ईर्ष्या पर यदि हम चिंतन न करें तो यह हमें दूसरों के प्रति घृणा की ओर अग्रसर करता है। हाबिल काईन के द्वारा मार डाला जाता है जो अपने भाई की खुशी को सहन नहीं कर पाता है।
ईर्ष्या में आंतरिक टीस
ईर्ष्या वह बुराई है जो केवल ख्रीस्तीय धर्म के द्वारा जाँच-पड़ताल नहीं की गई है बल्कि इसने दर्शनशास्त्रियों और हर संस्कृति के बुद्धिमानों का ध्यान भी अपनी ओर खींचा है। इसकी आधारशिला में हम नफरत और प्रेम के संबंध को पाते हैं। कोई दूसरे की बुराई चाहता है क्योंकि वह गुप्त रुप में दूसरे की तरह होने की चाह रखता है। दूसरा एक प्रकाशपुंज की भांति होता जिसकी तरह हम सभी होने की चाह रखते हैं, और वास्तव में हम वैसा नहीं हो सकते हैं। उसका भाग्यशाली होना हमारे लिए अन्याय स्वरुप दिखाई देता है, और निश्चित रूप में हम अपने बारे में यह सोचते हैं कि हमें भी उसकी तरह सफलताएं मिलतीं या हम भी भाग्यशाली होते।
ईश्वर की कार्यशैली
इस बुराई की जड़ में हम ईश्वर की एक गलत छवि को पाते हैं- हम ईश्वरीय कार्यशैली को नहीं स्वीकारते जो हमारे सोच-विचार से भिन्न है। उदाहरण के लिए हम इसे येसु के दृष्टांत में देखते हैं जहाँ दाखबारी में कार्य करने हेतु लोगों को दिन के अलग-अलग समय में भेजा जाता है। वे जो दिन के पहले पहर में रोजगार हेतु भेजे गये थे वे अंतिम पहर में आने वालों से अधिक मेहनताना के हकदार थे, लेकिन स्वामी सभों के लिए बराबर मजदूरी प्रदान करते हैं। और वे कहते हैं, “क्या मैं अपनी इच्छा के अनुसार अपनी संपत्ति का उपयोग नहीं कर सकताॽ” तुम मेरी उदारता पर क्यों जलते होॽ” हम अपने तर्क को अपने स्वार्थ के अनुरूप ईश्वर में थोपना चाहते हैं जबकि ईश्वर के तर्क का आयाम प्रेम है। अच्छी चीजें जिन्हें वे हमें देते हैं हमें उन्हें दूसरों के संग बांटने की जरुरत है। यही कारण है संत पौलुस रोमियों के नाम अपने पत्र में हम ख्रीस्तीयों को कहते हैं, “आप सच्चे भाइयों की तरह एक दूसरे को सारे हृदय से प्यार करें। हर एक दूसरे को अपने से श्रेष्ठ माने।” यह हमारे लिए ईर्ष्या का उपचार है।
मिथ्याभिमान में “मैं” बड़ा है
मिथ्याभिमान पर अपनी धर्मशिक्षा में संत पापा ने कहा कि यह ईर्ष्या के रक्षस के साथ-साथ चलता है और ये दोनों बुराई एक व्यक्ति के व्यक्तित्व में उभर कर आते जो अपने को दुनिया के क्रेन्द्र-बिन्दु में स्थापित करने की चाह रखता है। वह हर किसी का और हर किसी चीज का दुरूपयोग करता है जिससे वह अपने लिए प्रेम और सारी प्रशंसा हासिल कर सके। मिथ्याभिमान अपने में एक फुला हुआ और निराधार सम्मान है। मिथ्याभिमान की चाह रखने वाला व्यक्ति अपने में “मैं” के भाव को धारण करता है। वह अपने में कोई सहानुभूति नहीं रखता और वह इस तथ्य पर ध्यान नहीं देता कि दुनिया में उसके अलावा अन्य लोग भी हैं। उसका संबंध सदैव चीज-वस्तुओं की भांति होता है जिसकी निशानी दूसरों पर हावी होना है। उसका व्यक्तित्व, उसकी उपलब्धियाँ, उसकी सफलताएँ हर किसी को दिखाई देनी चाहिए, वह निरंतर दिखावा करने वाला एक भिखारी है। और यदि कभी उसके गुणों की प्रशंसा नहीं की जाती तो वह अत्यधिक क्रोधित हो जाता है। वह अपने में यह विचार करता कि दूसरे अन्यायी हैं, वे नहीं समझते हैं, वे मेरे जैसा नहीं कर सकते हैं। एभागुरूस पोंतिकुस अपने लेखक में एक मिथ्याभिमान से ग्रस्ति मठवासी की कटुता के बारे में लिखते हैं। ऐसा होता है कि अपने प्रथम आध्यात्मिक जीवन की सफलता उपरांत वह यह सोचता है कि उसे सिद्धि प्राप्त हो चुकी है, अतः वह तीघ्रता से दुनिया में वाहवाही की चाह लिये निकल पड़ता है। लेकिन उसने इस बात का अनुभव नहीं किया कि वह अपनी आध्यात्मिकता की राह के प्रथम पायेदान में ही है, और इस भांति एक प्रलोभन के आने पर वह तुरंत धराशायी हो जाता है।
मिथ्याभिमान का उपचार
मिथ्याभिमान से छुटकारा पाने हेतु आध्यात्मिक गुरूओं ने बहुत से उपाय नहीं सुझाये हैं। क्योंकि अंततः मिथ्याभिमान का उपचार स्वयं ही अपने में हो जाता है- व्यक्ति जो अपने में प्रशंसा और दिखावे की चाह से दुनिया में चलता वह तुरंत ही अपने पैरों में आ खड़ा होता है। कितने ही लोग हैं जो इस झूठी निशानी के शिकार हैं, इसके कारण वे पापों में गिर जाते और उन्हें शार्मिदगी का शिकार होना पड़ता है।
संत पापा ने अपनी धर्मशिक्षा के अंत में मिथ्याभिमान के विरूध सर्वश्रेष्ठ सुझाव की ओर ध्यान आकर्षित कराया जिसकी चर्चा संत पौलुस कुरिथियों ने नाम अपने दूसरे पत्र के अध्याय 12 के पद 9 में करते हैं। प्रेरित हमेशा एक ऐसे बुराई पर विचार करते थे जिसे वे अपने से कभी भी दूर नहीं कर सकें। उन्होंने तीन बार प्रभु से प्रार्थना की कि वे उन्हें उस पीड़ा से मुक्ति दिलायें, अंततः येसु ने उन्हें उत्तर दिया, “मेरी कृपा तुम्हारे लिए काफी है, क्योंकि तुम्हारी कमजोरी में मेरा सामर्थ्य पूर्ण रूप से प्रकट होता है।” उस दिन से पौलुस अपनी कमजोरी से मुक्त हो गये। उनका यह निष्कर्ष हमारे लिए भी सहायक बनें। “इसलिए मैं बड़ी खुशी से अपनी दुर्बलताओं पर गौरव करूँगा, जिससे मसीह का सामर्थ्य मुझ पर छाया रहे।”
Thank you for reading our article. You can keep up-to-date by subscribing to our daily newsletter. Just click here