संत पापाः ईश प्रजा हेतु सिनोड एक उपहार
वाटिकन सिटी
संत पापा फ्रांसिस शनिवार शाम को धर्माध्यक्षीय धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा कि अंतिम दस्तावेज़ ईश प्रजा के लिए तीन साल से अधिक समय तक सुनने का फल है।
उन्होंने कहा कि यह “धर्मसभा कलीसिया” को आगे बढ़ने का एक साझा मार्ग प्रकट करता है जो केवल शब्दों के माध्यम से नहीं बल्कि हर कार्य और वार्ता के माध्यम से सुसमाचार को मूर्त रूप प्रदान करता है। धर्मसभा की यह 16वीं आम सभा आधिकारिक रूप से रविवार, 27 अक्टूबर को संत पेत्रुस महागिरजाघर संत पापा फ्रांसिस की अध्यक्षता में पवित्र यूखारीस्तीय बदलिदान के द्वारा के साथ समाप्त हुई।
तीन आयामी उपहार
संत पापा ने दस्तावेज़ को कई आयामों वाला उपहार बताया, जो कलीसिया के लिए मार्गदर्शन और एकता तथा साझा प्रेरिताई के प्रतीक स्वरूप काम करेगा।
उन्होंने सर्वप्रथम धर्माध्यक्षों पर अपनी निर्भरता पर बल देते हुए धर्मसभा की यात्रा में प्रत्येक धर्माध्यक्ष की उपस्थिति के महत्व को रेखांकित किया। “ रोम के धर्माध्यक्ष के रूप में, मुझे आप सभी की ज़रूरत है: आप धर्माध्यक्षीय और धर्मसभा की यात्रा के गवाह हैं, आप सभों को सहृदय धन्यवाद।”
एक श्रोता के रूप में अपनी भूमिका को पहचानते हुए, उन्होंने खुद को और प्रत्येक धर्माध्यक्ष को याद दिलाया कि “रोम के धर्माध्यक्ष को भी सुनने का अभ्यास करने की ज़रूरत है, ताकि वह हर दिन उससे कहे जाने वाले वचन का जवाब दे सके, “अपने भाइयों और बहनों की देख-रेख करो...मेरी भेड़ों को चराओ।” उन्होंने कहा कि सुनने का यह कार्य कलीसिया के भीतर सद्भाव पैदा करने के लिए आवश्यक है, एक ऐसा सद्भाव जिसकी कल्पना संत बसिल और द्वितीय वाटिकन परिषद ने की थी।
सद्भाव की रक्षा करना, कठोरता से तटस्थ
संत पापा फ्रांसिस ने कलीसिया के लिए द्वितीय वाटिकन धर्मसभा में उल्लेखित सद्भाव को मूर्त रूप देने की आवश्यकता पर जोर दिया, जो कलीसिया को “एक संस्कार की तरह” बनाता है। उन्होंने कहा,"वह हमारे उम्मीद के ईश्वर का संकेत और साधन है, जिसने पहले ही मेज तैयार कर ली है और अब इंतजार करते हैं।”
उन्होंने कहा, “ईश्वर की कृपा प्रत्येक व्यक्ति के दिल में प्रेम के शब्दों को फुसफुसाती है।” यह कलीसिया पर निर्भर है कि वह “इस फुसफुसाहट को, बिना अवरोधित किये, दीवारें खड़ा करने के बजाय दरवाजे खोलकर प्रसारित करती है।” संत पापा फ्रांसिस ने खुलेपन और विनम्रता का आह्वान करते हुए इस बात हेतु सजग किया कि हमें “कृपा के वितरक” की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए जहाँ हम कृपालु ईश्वर के हाथ को बांधकर खजाने को हड़प लेते हैं।”
मैडेलीन डेलब्रेल की एक कविता को उद्धृत करते हुए, जो अपने पाठकों को कभी भी “कठोर” न होने को प्रोत्साहित करते हैं, संत पापा ने कुछ पंक्तियों को “एक प्रार्थना” के रूप में वर्णित किया और कलीसिया को खुलेपन, खुशी और ईश्वर की दया पर भरोसा करते हुए अपनी प्रेरिताई को जीने हेतु आमंत्रित किया:
"क्योंकि मुझे लगता है कि आप उन लोगों से ऊब चुके हैं जो हमेशा,
एक नेता के मनोभावओं से आपकी सेवा करने की बात करते हैं,
प्रोफेसर की तरह आपका सामना करते हैं,
खेल के नियमों के साथ आपके पास आते हैं,
आपको वैसे प्रेम करते हैं जैसे एक वृद्ध विवाह में प्यार किया जाता है।”
इस प्रकार, एक ऐसे विश्वास का आह्वान करते हुए जो “कृपा की बाहों में नृत्य” है, संत पापा फ्रांसिस ने कलीसिया को खुलेपन, खुशी और ईश्वर की दया पर भरोसा करते हुए अपनी प्रेरिताई को जीने हेतु आमंत्रित किया।
टूटी दुनिया में साक्ष्य
कलीसिया को बिखरी दुनिया में साक्ष्य बनने की बातों पर जोर देते हुए संत पापा ने कहा,“युद्ध की हमारी परिस्थितियों में हमें शांति का साक्ष्य देने की जरुरत है, यहां तक कि अपने मतभेदों को भी सौहार्दपूर्वक ढ़ंग से जीते हुए।”
हिंसा, गरीबी और पीड़ा से पीड़ित क्षेत्रों से आने वाले धर्माध्यक्षों के विविध अनुभवों को चिन्हित करते हुए, उन्होंने सभी को सुनने और सुलह के माध्यम सक्रिय रूप से शांति स्थापित करने को प्रोत्साहित किया। उन्होंने कहा, “दस्तावेज़ में पहले से ही बहुत ठोस संकेत हैं जो कलीसियाओं की प्रेरिताई के लिए उनके विशिष्ट महाद्वीपों और संदर्भों में एक मार्गदर्शक हो सकते हैं," उन्होंने आशा व्यक्त की कि यह साझा अनुभव “ईश प्रजा की सेवा में ठोस कार्य करने में सहायक सिद्ध होगा।”
कलीसिया में आत्मा का वास
संत पापा ने इस बात की याद दिलाई कि कलीसिया में एकता के स्रोत पवित्र आत्मा हैं, जहाँ हम विभिन्न संस्कृतियों के रुप में अपने बीच में चुनौतियों, आशाओं और सहभागिता को पाते हैं। उन्होंने सभी प्रतिभागियों से आग्रह किया कि वे पवित्र आत्मा के उपहारों को कलीसिया में सुनने, प्रार्थना करने और नम्रतापूर्ण कार्यों में कार्यान्वित करें।
उन्होंने कहा, “पवित्र आत्मा हमें इस शिक्षण हेतु बुलाते और हमारा समर्थन करते हैं, जिसे हमें रूपांतरण की प्रक्रिया स्वरुप समझने की आवश्यकता है।” उन्होंने आगे कहा कि धर्मसभा की यात्रा “कोई अंतिम बिंदु नहीं बल्कि रूपांतरण की एक सतत प्रक्रिया है।” अपने संबोधन के अंत में संत पापा ने पुनः डेलब्रेल के शब्दों को उद्धृत किया: “ऐसे स्थान हैं जहाँ आत्मा साँस लेती है, लेकिन केवल एक आत्मा है जो सभी स्थानों पर साँस लेती है।”
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