धर्मसभा की आध्यात्मिक साधनाः मित्रता
वाटिकन सिटी
तीसरा प्रवचन- मित्रता
अपनी मृत्यु से पहले रात को, येसु ने अपने पिता से प्रार्थना की, “वे एक हो जैसे हम एक हैं” (यो. 17.11) लेकिन शुरू से ही, जैसे कि हम नये विधान में पाते हैं, शिष्यों को हम अपने में विभाजित, लड़ते हुए एक दूसरे से अलग-थलग पाते हैं। हम इस धर्मसभा में जमा होते हैं क्योंकि हम भी अपने में विभाजित हैं और प्रार्थना करते हुए आशा करते हैं कि हमारे मन और हृदय एकता में बने रहें। यह हमारे ओर से दुनिया के लिए एक मूल्यवान साक्ष्य होगा जो युद्धों और असामानताओं से विखंडित है। ख्रीस्त का शरीर उस शांति का प्रतीक होना चाहिए जिसकी प्रतिज्ञा येसु करते हैं और जिसके लिए दुनिया तरसती है।
कल हमने विभाजन के दो स्रोत को देखाः हमारी विभाजित आशाएं और घर के रुप में कलीसिया के प्रति हमारा विभिन्न दृष्टिकोण। लेकिन हमारे लिए इन तनावों से विभाजित होने की कोई आवश्यकता नहीं है, हम आशा के धारक हैं जो आशा से परे आशा को ले जाते हैं, ईश्वर के राज्य में उसकी चर्चा करते हुए येसु कहते हैं कि “मेरे पिता से घर में बहुत से निवास स्थान हैं” (यो.14.1)।
निश्चित रूप में हर आशा या विचार अपने में वैध नहीं है। लेकिन रूढ़िवाद विस्तृत है और विधर्म संकीर्ण। य़ेसु अपनी भेड़ों को छोटे बंद स्थानों से विस्तृत विश्वास रुपी भेड़शाला की हरियाली में ले चलते हैं। पास्का में, वे उनका नेतृत्व करते हुए बंद कमरे से ईश्वरीय विशालता “दिव्य प्रचुरता” में उन्हें ले चलते हैं।
अतः हम एक साथ मिलकर उनकी सुनें। लेकिन कैसेॽ एक जर्मन धर्माध्यक्ष सिनोडल वाद-विवाद के दौरान “काटने वाले स्वर” से चिंतित थे। उन्होंने कहा कि वे एक व्यवस्थित बहस की तुलना में “मौखिक प्रहारों से अधिक आलंकृत है।” निश्चित रुप में वाद-विवाद में व्यवस्थित तर्क की जरुरत है। एक दोमेनिकन के रुप में मैं इस तर्क की महत्वपूर्णत को कभी नकार नहीं सकता हूँ। लेकिन इससे भी अधिक जरुरी बातें हैं यदि हम अपनी विभिन्नता से परे जाने की सोचते हैं। भेड़ें ईश्वर की आवाज पर विश्वास करती हैं क्योंकि यह मैत्रीपूर्ण है। यह धर्मसभा अपने में फलदायी होगी यदि यह हमें गहरे रुप में येसु और एक-दूसरे से मित्रता हेतु अग्रसर करे।
उस रात को अपनी मृत्यु से पहले, येसु ने अपने शिष्यों से कहा कि कौन मुझे धोखा, अस्वीकार और परित्यग करने वाला है, यह कहते हुए,“मैंने तुम्हें मित्र कहा है” (यो.15.15)। हम ईश्वर की चंगाई करने वाली मित्रता में आलिंगन किये जाते हैं जो हमारे कैदखानों के द्वारों को खोलती है जिसे हम अपने लिए तैयार करते हैं। “अदृश्य ईश्वर नर और नारियों से मित्र के रुप में बातें करते हैं” (वाटिकन द्वितीय, देऊ भेरबुम 2)। उन्होंने तृत्वमय मित्रता हेतु हमारे लिए मार्ग खोला है। यह मित्रता शिष्यों, चुंगी जमा करने वालों और वेश्याओं, वकीलों और परदेशियों को मिली थी। यह ईश्वर के राज्य का प्रथम स्वाद था।
दोनों, पुराना विधान उत्कृष्ट यूनानी और रोमी इस मित्रता को अपने में असंभव पाते हैं। मित्रता केवल अच्छे लोगों के मध्य होती थी। दुष्टों के संग मित्रता अपने में असंभव समझी जाती थी। जैसे स्तोत्र 26 कहा है, “मैं अपराधियों के मंडली से घृणा करता हूँ और दुष्टों के साथ नहीं बैठता”। दुष्टों के मित्र नहीं होते क्योंकि वे केवल बुरे कार्यों से ताल्लुकात रखते हैं। लेकिन हमारे ईश्वर का सहचर्य आश्चर्य रुप में उनके साथ था। वे धोखाधड़ी करने वाले याकूब, व्यभिचारी और हत्यारे दाऊद तथा मूर्तिपूजा करने वाले सलोमोन को प्रेम करते हैं।
वहीं मित्रता केवल अपने बराबर वालों के साथ संभव होती थी। लेकिन कृपा ने हमें दिव्य मित्रता हेतु ऊपर ऊठाया है। संत थोमस आक्वीनस कहते हैं, “केवल ईश्वर हमें ईश्वर जैसा बना सकते हैं।” आज हम रक्षक दूतों का त्योहार मना रहे हैं, जो हमारे लिए ईश्वर के संग अद्वितीय मित्रता की निशानी हैं जिसे उन्होंने हममें से हरएक के लिए दिया है। रक्षक दूतों के पर्व दिवस पर संत पापा फ्रांसिस ने कहा, “कोई अपनी यात्रा अकेले नहीं करता है और किसी को यह नहीं सोचना चाहिए की वह अकेला है।” अपनी यात्रा में हम ईश्वर के आलिंगन में होते हैं।
सुसमाचार का प्रचार करना केवल सूचना का प्रसार करना कभी नहीं है। यह मित्रता का एक कार्य है। सौ साल पहले, भिन्सेट मैकनाब ओपी ने कहा, “उन्हें प्रेम करें जिन्हें आप प्रवचन देते हैं। यदि आप ऐसा नहीं करते तो आप उन्हें उपदेश न दें। आप स्वयं को प्रवचन दें।” कहा जाता है कि संत दोमेनिक सभों के द्वारा प्रेम किये जाते थे क्योंकि उन्होंने सभों को प्रेम किया। सियेना की संत कैथरीन अपने मित्रों की एक मंडली से घिरी रहती थीं- नर और नारियाँ, लोकधर्मी और धर्मसंगी। वे अपने में कैथीरिनाती कैथरीन के लोग नाम से जाने जाते थे। संत मार्टिन दे पोरेस बहुधा एक बिल्ली, कुत्ते और एक चूहा के द्वारा दिखाये जाते हैं जो एक ही थाली से खाते थे। यह एक धर्मसंघी जीवन के लिए अच्छा चित्र है।
हम पुराने व्यवस्थान में नर और नारियों के मध्य एक सहज मित्रता को नहीं पाते हैं। ईश राज्य की शुरूआत येसु से होती है जो अपने मित्रों, नर और नारियों से घिरे थे। यहाँ तक की आज भी, बहुत से लोग नर और नारियों के बीच एक पवित्र संबंध की संभावना को लेकर संदेह की भावना रखते हैं। पुरूषों को दोषारोपण का भय होता है, नरियाँ पुरूषों के हिंसा से भयभीत होती हैं, युवा दुराचार से डरते हैं। हमें ईश्वर की विशाल मित्रता को अपनाने की जरुर है।
इस भांति हम सुसमाचार का प्रचार मित्रता में करते हैं जो सीमाओं के पार जाती है। ईश्वर सृष्टिकर्ता और प्राणी के बीच विभाजन के परे जाते हैं। हम कैसे असंभव मित्रता में प्रवेश कर सकते हैंॽ जब धन्य पियरे क्लेवेरी को, सन 1981 में अल्जीरिया, ओरान का धर्माध्यक्ष नियुक्त किया गया, तो उन्होंने अपने मुस्लिम दोस्तों से कहा, “मैं आज जो कुछ हूँ उसके लिए आप सबों के प्रति भी आभारी हूँ। आप के संग मैंने अरबी भाषा सीखी, मैं हृदय की इस भाषा को बोलना और समझना सीखा, जो भ्रातृत्वमय मित्रता की भाषा है, जहाँ जातियाँ और धर्मों का एक दूसरे से मेल होता है... क्योंकि मैं विश्वास करता हूँ कि यह मित्रता ईश्वर से आती है और हमें ईश्वर की ओर ले जाती है।” हम इस बात पर गौर करें कि मित्रता ने उन्होंने वह बना दिया जो वे आज हैं।
यह वही मित्रता थी जिसके लिए वे आंतकवादियों के द्वारा, एक अन्य मुस्लिम मित्र मोहम्मद बौकिची के संग मार डाले गये। उनकी धन्य घोषणा के बाद, उनकी मित्रता के बारे में, पियेर और मोहम्मदः नाटक मंचन किया गया। मोहम्मद की माता ने उस नाटक में अपने पुत्र की मृत्यु को देखा और नायक के हाथों को चूम लिया जिसने उसका पात्र अदा किया था।
सुसमाचार जिसे युवा आज हमसे सुनने की प्रतीक्षा करते हैं, वह .यह है कि ईश्वर उनसे मित्रता करने को आते हैं। यह मित्रता है जिसकी चाह वे रखते और जिसे वे इंस्टाग्राम और टिक-टॉक में खोजते हैं। जब मैं किशोर था, मेरी दोस्ती ख्रीस्तीय पुरोहितों से हुई। उनके द्वारा मैंने विश्वास की खुशी को पाया। अफसोस की बात है कि यौन शोषण की समस्या ने ऐसी मित्रता को संदिग्ध बना दिया है। यौन पाप से अधिक यह हमारे लिए मित्रता के विरूध एक अपराध है। दांते के इन्फर्नो में गम्भीर लेख दोस्ती में उसके लिए आरक्षित था जो विश्वासघात करते थे।
अतः इस सिनोड में हम जो कुछ भी करेंगे उसका स्रोत हमारे लिए मित्रता है जिसे हम स्थापित करेंगे। यह हमसे अधिक मांग नहीं करती है। यह संचार माध्यमों में शीर्षक नहीं बनेगा। “वे इतनी दूर चल कर मित्रता करने हेतु रोम आये। समय की कितनी बर्बादी है।” लेकिन यह मित्रता है जिसके माध्यम “मैं” को “हम” में परिवर्तित किया जाता है। इसके बिना हम कुछ भी हासिल नहीं करेंगे। जब कैंटरबरी के एंग्लिकन महाधर्माध्यक्ष, रॉबर्ट रनसी, संत पापा जॉन पॉल द्वितीय से मिले, तो वे निराश थे क्योंकि एकता के संबंध में कोई प्रगति नहीं हुई थी। लेकिन संत पापा ने उनसे कहा कि वे विश्वस्त बने रहें।“प्रभावशाली धर्माध्यक्षीय मिलन प्रभावी धर्माध्यक्षयता से पहले आती है।”
इस्ट्रुमेन्टुम लबोरिस बहुत से पुरोहितों के अकेलेपन को संदर्भित करता है और “उनके लिए चिंता, मित्रता और सहयोग की जरूरत के बारे कहता है। पुरोहितों के बुलाहट का हृदय उनकी मित्रता की कला है। यह अनंत है जो तृत्वमय ईश्वर से मित्रता के बारबर है। ऐसा होने पर याजकीयवाद के सारे जहर पिघल जाते हैं। माता-पिता होने की बुलाहट भी अपने में अकेलेपन का सामना कर सकती है जिसे बनाये रखने हेतु हमारे लिए मित्रता की जरुर है।
मित्रता अपने में एक सृजनात्मक कार्य है। अंग्रेजी में हम कहते हैं कि हमें प्रेम होता है लेकिन हम मित्र बनाते हैं। येसु ने भले समारी के दृष्टांत उपरांत शास्त्री से पूछा, “उन तीनों में से कौन डाकूओं के हाथ में पड़े व्यक्ति का मित्र निकलाॽ (लूका.10.36)। वे अपने शिष्यों से यह कहते हैं कि झूठे धन से मित्र बना लोॽ (लूका.16.9)। धर्मसभा में हमारे पास असंभव मित्रता का एक रचनात्मक कार्य है, विशेषकर उन लोगों के साथ जिनसे हम असहमत हैं। अगर आपको लगता है कि मैं बकवास कर रहा हूँ तो आओ और मुझसे दोस्ती करो।
यह हमारे लिए बेतुका सुनाई देता है। कल्पना कीजिए कि मैं आपको मित्र बनाने के गंभीर संकल्प के साथ आप पर दबाव बना रहा हूँ। आप दूर भागना चाहेंगे। लेकिन मित्रता की नींव दूसरे के संग खड़ा होने में है। यह दूसरे की उपस्थिति का लुफ्त उठाना है। येसु अपने करीबी मित्रों, पेत्रुस, याकूब और योहन को पर्वत पर आने का निमंत्रण देते हैं, और वे उनके संग गेतसेमानी बारी में भी होंगे। अपने स्वर्गारोहण के बाद, वे यूदस के स्थान में दूसरे की खोज करते हैं, वह जो येसु और उनके सानिध्य में रहा हो। पेत्रुस ने कहा, “इसलिए उचित है कि जितने समय तक प्रभ ईसा हमारे बीच रहे, अर्थात योहन के बपतिस्मा से लेकर प्रभु के स्वर्गारोहण तक, जो लोग बराबर हमारे साथ थे, उनमें से एक हमारे साथ प्रभु के पुनरूत्थान का साक्षी बनें” (प्रेरि.1.21)। स्वर्ग हमारे लिए येसु ख्रीस्त के साथ होना है। हम यूखारिस्त में, “प्रभु आप के साथ हो” को चार बार सुनते हैं। यह हमारे लिए दिव्य मित्रता है। सिस्टर वेंडी बेकेट ने प्रार्थना को “प्रभु की उपस्थिति में असुरक्षित होना” बताया। इसके बारे में कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है।
आध्यात्मिक मित्रता की अपनी पुस्तक में संत रिवाउल्क्स के एलरेड, 12वीं संदी के सिस्टरशियन पुरोहित लिखते हैं,“हम यहाँ, आप और मैं, और मैं आशा करता हूँ कि ख्रीस्त हमारे लिए तीसरे हैं। हमें अब कोई भी बाधा नहीं डाल सकता है... अतः आइए अब, प्रिय मित्रों, अपने हृदय के विचार व्यक्त करें और अपना मन की बातों के बोलें।” क्या हम अपने मन की बातों को बोलने का साहस करेंगेॽ
दोमेनिकन धर्मसमाज का सामान्य धर्म सम्मेलन में, निसंदेह, हम वाद-विवाद करते और निर्णयों को लेते हैं। लेकिन हम एक साथ प्रार्थना करने और मिलकर खाते हैं, टहलने हेतु जाते, पीते और मनोरंजन करते हैं। हम अपने समय को दूसरों के लिए एक मूल्यवान उपहार स्वरुप देते हैं। हम एक सामान्य जीवन संचालित करते हैं। तब एक महत्वपूर्ण मित्रता उमड़ कर आती है। आदर्श रुप में, हमें धर्मसभा के इन तीन सप्ताहों में ऐसा करना चाहिए न कि दिन से अंत में हम अपनी-अपनी राह चलें। हम आशा करते हैं कि धर्मसभा के अगले सत्र में यह संभव होगा।
ईश्वर का सृजनात्मक प्रेम हमें स्थान देता है। हर्बर्ट मैककेबे ओपी लिखते हैं, “ईश्वर की शक्ति मुख्य रुप से चीजों को पूरा करती है। “प्रकाश हो जाये”- सृजनात्मक शक्ति, वह शक्ति है जो चीजों को वैसे ही छोड़ती जैसे कि वे हैं, व्यक्तियों में जैसे वे हैं, यह प्राणियों के संग छेड़छाड़ नहीं करती है। निश्चित रुप में सृष्टि करना चीजों को अलग रुप में बनाना नहीं है, बल्कि यह उन्हें वैसे ही रहने देना है जैसे वे हैं। सृष्टि सरल रुप में और मुख्यतः चीजों को वैसा ही रहने देना है, और हमारा प्रेम उसमें एक धुंधली छवि है।”
बहुधा हमारे लिए शब्दों की जरूरत नहीं है। एक युवा अलगेरियन नारी जिसका नाम यसमीना था उन्होंने पियेयर क्लाभेरिये के शहीद स्थल पर एक कार्ड रखा। उसमें उन्होंने लिखा,“इस शाम, फादर, मेरे पास कोई शब्द नहीं है। लेकिन मेरे पास आंसू और आशा है।”
यदि हम एक दूसरे से संग इस भांति रहते हैं, तो हम एक-दूसरे को इस भांति देखेंगे मानो हम पहली बार मिल रहे हों। जब येसु ने सिमोन फरीसी के यहाँ भोजन किया, एक नारी, संभवतः एक स्थानीय वेश्या, अंदर आयी और रोते हुए अपने आंसूओं से उनके पैर धोये। सिमोन को सदमा लगा। क्या येसु उस नारी को नहीं जानते कि वह कौन हैॽ येसु उत्तर देते हैं, “क्या तुम इस स्त्री को देखते होॽ मैंने तुम्हारे घर में प्रवेश किया, तुमने मुझे पैर धोने को पानी नहीं दिये, लेकिन उसने मेरे पैरों को अपने आंसूओं से धोया और अपने बालों से पोंछा है” (लूका.7.44)।
इस्रराएल ने ईश्वर के चेहरे को देखने की चाह रखी। सदियों तक उसने यह गीत गाया,“विश्वमंडल के प्रभु हम पर दया दृष्टि कर और हम सुरक्षित रहेंगे” (स्तोत्र 80)। लेकिन ईश्वर को प्रत्यक्ष रुप में देखना और जीवित रहना संभव नहीं था। इस्रराएल ने उस बात की चाह रखी जो असहनीय था, ईश्वर के चेहरे को देखने की चाह। येसु में हमारे लिए उस चेहरे को प्रकट किया गया है। चरवाहे उन्हें चरनी में सोते हुए बालक की भांति देखते और जीवित रहते हैं। ईश्वर का चेहरा अपने में दृश्यमान है लेकिन ईश्वर मर गये, उनकी आंखें क्रूस पर बंद हो गयीं।
द्वितीय यूखारिस्तीय प्रार्थना में हम मृतकों के लिए प्रार्थना करते हैं कि वे ईश्वर की ज्योति में स्वागत किये जायें। ईश्वर की निगाहों में उनका पुनरूत्थान हों। एक प्राचीन ईशशास्त्री, शायद संत अगुस्टीन, भले डाकू को जो येसु के संग मर गया वार्ता करते हुए चिंतन करते हैं। वे कहते हैं, “मैंने धर्मग्रँथ का विशेष अध्ययन नहीं किया। मैंने पूरे जीवन में चोरी की। लेकिन, मेरे जीवन के एक निश्चित दुःख और अकेलेपन के समय, मैंने येसु को पाया जो मेरी ओर देखते हैं, उनकी निगाहों में, मैंने हर चीज को समझा।”
येसु के पहले और दूसरे आने के मध्य इस समय में हम एक-दूसरे के लिए येसु का वह चेहरा बनें। हम उन्हें देखते जो अदृश्य हैं और उसके साथ मुस्कुराये जो अपने में शर्मिदगी का अनुभव करते हैं। एक अमेरिकन दोमेनिकन ब्रायन पियर्स ने लीमा,पेरू की यात्रा करते हुए गलियों में बच्चों की तस्वीर देखी जो प्रदर्शनी हेतु लगी हुई थीं। एक बच्चे की तस्वीर के नीचे यह लिखा हुआ था,“वे जानते हैं कि मैं जीवित हूँ, लेकिन वे मुझे नहीं देखते”।
दक्षिण अफ्रीका में, लोगों के अभिवादन हेतु साधारणा “सावाबोना” “मैं आप को देखता हूँ” कहा जाता है। लाखों की संख्या में लोग अदृश्य हैं। कोई भी उन्हें पहचानने की निगाहों से नहीं देखता है। बहुधा लोग हिंसा करने की प्रलोभन में पड़ा जाते हैं जिससे वे दूसरों का ध्यान आकर्षित कर सकें। देखो मैं यहाँ हूँ। कम से कम दूसरों से द्वारा एक शत्रु के रुप में देखा जाना बेहतर होता है वहीं किसी के द्वारा ध्यान न दिया जाना।
थॉमस मोर्टन ने धर्मसंघी जीवन को चुना क्योंकि वह दुनिया की दुष्टता से बचना चाहते था। लेकिन सिस्टेरियन धर्मसंघी जीवन के कुछ वर्षों ने लोगों की सुंदरता और अच्छाई के प्रति उनकी आँखें खोल दीं। एक दिन सड़क पर उसकी आंखों से पर्दा गिर गया। उन्होंने अपनी डायरी में लिखा, “तब मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने अचानक उनके हृदयों की छिपी सुंदरता, उनके दिलों की गहराई को देखा, जहाँ न तो पाप, न इच्छा और न ही आत्म-ज्ञान पहुंच सकता है, उनके अस्तित्व का मूल, हर व्यक्ति ईश्वर की निगाहों में है। यदि वे स्वयं को वैसे ही देख पाते जैसे वे वास्तव में हैं। काश हम हर समय एक-दूसरे को उसी तरह देख पाते। ऐसा होने से कोई युद्ध नहीं होगा, कोई नफरत नहीं होगी, कोई लालच नहीं होगा।
हमारी दुनिया मित्रता की भूखी है, लेकिन यह विनाशकारी प्रवृत्तियों से विकृत हो गई है: प्रसिद्धि पाने की चाह में वृद्धि, जिसमें लोग सहज कथाओं, आसान नारों, भीड़ के अंधेपन से बंधे हुए हैं। और वहाँ हम एक तीव्र व्यक्तिवाद है, जिसका अर्थ है कि मेरे पास केवल मेरी कहानी है। टेरी ईगलटन लिखते हैं, “यात्राएं अब सांप्रदायिक नहीं बल्कि स्वयं बनाई जाती हैं, यह एक लिफ्ट लेने के समान है न की कोच दौरे की तरह। वे अब बड़े पैमाने पर नहीं होते बल्कि अधिकांशतः अकेले ही शुरू किए जाते हैं। दुनिया अब कहानी के आकार की नहीं रह गई है, इसका मतलब यह है कि आप जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, आप अपने जीवन को बना सकते हैं।” लेकिन “मेरी कहानी” हमारी कहानी है, सुसमाचार की कहानी जिसे आश्चर्यजनक रूप से अलग-अलग तरीकों से बताया जा सकता है।
सी. एस. लुईस ने कहा कि प्रेमी एक-दूसरे को देखते हैं लेकिन दोस्त एक ही दिशा में देखते हैं। वे एक-दूसरे से असहमत हो सकते हैं, लेकिन कम से कम वे कुछ एक जैसा सवाल साझा करते हैं। “क्या आप भी उसी सत्य की परवाह करते हैंॽ” वह जो हमारे उस सवाल से सहमत है जिसे दूसरे लोग बहुत कम महत्व देते हैं, बहुत महत्वपूर्ण है, वह हमारा मित्र हो सकता है। उत्तर के संबंध में उसे हमसे सहमत होने की आवश्यकता नहीं है।”
इस धर्मसभा में सबसे सहासी काम जो हम कर सकते हैं, वह है एक-दूसरे के प्रति अपने संदेहों और प्रश्नों के प्रति ईमानदार रहना, जिन प्रश्नों का हमारे पास कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है। तब हम एक साथ खोज करने वालों के रुप में, और सत्य के भिक्षु स्वरुप निकट आएंगे। ग्राहम ग्रीन के डॉन क्विक्सोट में, एक स्पेनिश काथलिक पुरोहित और एक कम्युनिस्ट मेयर एक साथ छुट्टियां मना रहे थे। एक दिन वे अपने संदेह साझा करने का साहस करते हैं। पुरोहित कहता है, “यह अजीब है कि कैसे संदेह की भावना साझा करना लोगों को एक साथ ला सकती है, शायद किसी आस्था को साझा करने से भी ज्यादा। आस्तिक विचारों की विभिन्न के कारण दूसरे आस्तिक से लड़ेगा; संदेह करने वाला केवल स्वयं से लड़ता है।”
संत पापा फ्रांसिस ने रब्बी स्कोर्का के संग अपने संवाद में कहा: “ईशप्रजा के महान नेता वे लोग थे जिन्होंने संदेह के लिए जगह छोड़ दी... जो कोई ईशप्रजा का नेता बनना चाहता है उसे ईश्वर को अपने जीवन में स्थान देना होगा; इसलिए, झुकना, संदेह के साथ आपने में पीछे हटना, आंतरिक अंधेरे का अनुभव करना, न जाने क्या करना है; ये सारी चीजें अंततः हमें परिशुद्ध करने वाली चीजें हैं। बुरा नेता वह होता है जो आत्मविश्वासी और हट्ठी है। एक बुरे नेता की एक विशेषता यह है कि वह अपने आत्म-आश्वासन के कारण अत्यधिक नियामक बन जाता है।”
यदि सत्य के प्रति कोई साझा चिंता नहीं है, तो मित्रता का क्या आधार हैॽ हमारे समाज में मित्रता कुछ हद तक कठिन है क्योंकि समाज ने या तो सच्चाई पर विश्वास खो दिया है, या फिर संकीर्ण कट्टरपंथी बातों से चिपक गया है जिन पर चर्चा नहीं की जा सकती है। सोल्झेनित्सिन ने कहा, “सत्य का एक शब्द पूरी दुनिया पर भारी पड़ता है।” बस में यात्रा कर रहे मेरे एक भाई ने अपने सामने की सीटों पर दो महिलाओं की बातें सुनीं। एक उस कष्ट के बारे में शिकायत कर रही थी जिसे उसे सहना पड़ा। दूसरे ने कहा: “प्रिय, तुम्हें इसके बारे में दार्शनिक विचार रखने होंगे।” “दार्शनिक” का क्या मतलब हैॽ” “इसका मतलब है कि आप उसके बारे में विचार ही नहीं करते हों।”
मित्रता तब फलती-फूलती है जब हम अपनी शंकाओं को साझा करते और एक साथ सच्चाई की तलाश करने का साहस करते हैं। उन लोगों से बात करने का क्या मतलब है जो पहले से ही सब कुछ जानते हैं या जो पूरी तरह सहमत हैंॽ लेकिन हम ऐसा कैसे करेंॽ यही हमारे सम्मेलन की विषयवस्तु है।
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