फादर पसोलिनी : आगमन में, आशा को जीवित रखने के लिए ईश्वर और दूसरों पर भरोसा पुनः खोजना
इसाबेला पिरो- वाटिकन सिटी
स्वार्थ की ओर प्रवृत्ति इस युग में, क्या हम विश्वास के बारे में बात कर सकते हैं? और जीवन के कठिन क्षणों में, उन महत्वपूर्ण पलों में जब हमें किसी अत्यंत महत्वपूर्ण चीज को खोने का भय होता है, क्या हम तब भी किसी चीज या व्यक्ति पर भरोसा कर सकते हैं? ये वे अंतर्निहित प्रश्न हैं जिन्हें परमधर्मपीठीय परिवार के उपदेशक कपुचिन फ्रांसिस्कन फादर रॉबर्टो पासोलिनी ने आगमन काल के दूसरे उपदेश के केंद्र में रखा है, जिसे उन्होंने 13 दिसंबर की सुबह पॉल षष्ठम सभागार में पोप और रोमन क्यूरिया के उनके सहयोगियों के समक्ष रखा। चिंतन के लिए चुना गया विषय है "आशा के द्वार। क्रिसमस की भविष्यवाणी के माध्यम से पवित्र वर्ष के उद्घाटन की ओर।”
भरोसा, मानवीय संबंध का आधार
6 दिसम्बर को अपने पहले उपदेश में “विस्मय के द्वार” पर चिंतन करने के बाद, आज फादर पसोलिनी ने हमें “भरोसा के द्वार” पर चिंतन करने के लिए प्रेरित किया है। यानी, वह मौलिक दृष्टिकोण जो मानवीय रिश्तों को सहारा देता है, प्रतिदिन की चुनौतियों का सामना करने का साहस बढ़ाता और भविष्य की ओर हमारी निगाहें खोलता है। उपदेशक रेखांकित करते हैं कि भरोसा कोई अनुभवहीन आशावाद नहीं है बल्कि एक साहसी विकल्प है जो वास्तविकता की गहन दृष्टि से उपजता है, जो मुश्किल क्षणों में भी आशा को जीवित रखता है।
आहाज, यूदा के राजा
इसके प्रमाण स्वरूप फादर पसोलिनी तीन व्यक्तियों का हवाला देते हैं : यूदा के राजा आहाज, एक अज्ञात रोमन शतपति और संत जोसेफ। पहला, एक ऐसा राजा है जो सीरो-एप्रैमाइट युद्ध के दौरान, प्रभु पर भरोसा नहीं करता है और, नबी इसायस की भविष्यवाणी अनुसार येरूसालेम में दृढ़ रहने के बजाय, खुद को अश्शूर के साथ गठबंधन में शामिल करना पसंद करता है, जो अंततः उसका जागीरदार बन जाता है। संक्षेप में, आहाज, ईश्वर की भविष्यवाणी में विश्वास नहीं करता, लेकिन इसके बावजूद, ईश्वर उससे अपनी नज़र नहीं हटाते हैं: राजा के अविश्वास का क्षण इम्मानुएल की भविष्यवाणी से खुलता है: " एक कुंवारी गर्भवती होगी और पुत्र प्रसव करेगी और उसका नाम इम्मानुएल होगा।" (इसायस 7:9)।
ईश्वर की दृष्टि हमें वापस सही राह पर ले आती है
कपुचिन पुरोहित बताते हैं कि भरोसा, जिसमें ईश्वर तब भी हमारे करीब रहते हैं, जब हम स्वयं को अविश्वसनीय साबित करते, एक साधारण आशावाद से कहीं बढ़कर है, क्योंकि प्रभु को यह विश्वास है कि उनकी आवाज़ "बारिश और बर्फ की तरह" है जो बिना किसी कारण के स्वर्ग से नहीं गिरती। पृथ्वी पर प्रभाव उत्पन्न किये बिना नहीं रहती। केवल इतना ही नहीं: चूँकि वे शुरू से ही प्रेम हैं और हमें स्वतंत्र बनाया है, इसलिए ईश्वर इस बात पर सहमत है कि विश्वास को हमेशा प्राथमिकता दी जानी चाहिए और उसे ग्रहण किया जाना चाहिए, क्योंकि "केवल विश्वास ही मुक्त करता है।" और यह वास्तव में उनकी दृष्टि ही है जो कठिनाई और हतोत्साह के क्षणों में हमें कठिनाइयों से उबरने और सही रास्ते पर वापस लौटने में मदद देती है। फादर पासोलिनी कहते हैं, "ईश्वर हमारी स्वतंत्रता का सम्मान करता है और जब हम इसका उपयोग उनके जैसा बनने के लिए करते हैं तो वे खुश होते हैं।" परन्तु यदि हम उसकी दृष्टि से मुंह मोड़ लेते, तब भी ईश्वर अपनी दृष्टि हमसे नहीं मोड़ते। वे हमें अपने प्रिय बच्चों के रूप में पहचानते हैं, तथा अपने पास लौटने की हमारी क्षमता पर विश्वास दिखाते हैं।”
रोमी शतपति
फादर पसोलिनी द्वारा उद्धृत दूसरा व्यक्ति रोमी सेना का एक बेनाम शतपति है, जिसका वर्णन लूकस रचित सुसमाचार में मिलता है: यद्यपि वह एक गैर यहूदी था, फिर भी वह येसु पर भरोसा करने का निर्णय लेता है और उससे अपने बीमार सेवक को चंगा करने के लिए कहता है। दूसरों के जीवन और जरूरतों के प्रति सजग, शतपति उद्धारकर्ता को कठिनाई में नहीं डालने का प्रयास करता है, उसे घर में प्रवेश करने से रोकता है, क्योंकि वह जानता है कि उद्धारकर्ता जैसा एक सचेत यहूदी, एक मूर्तिपूजक के घर में प्रवेश करके दूषित हो जाएगा। अंततः, वह येसु को एक “अद्भुत वाक्यांश” के साथ संबोधित करता है जिसे बाद में ख्रीस्तीय धर्मविधि में शामिल किया गया: “हे प्रभु, मैं इस योग्य नहीं हूँ कि तू मेरे यहाँ आए, किन्तु एक ही शब्द कह दे और मेरी आत्मा चंगी हो जाएगी।” उपदेशक ने स्पष्ट किया कि ये शब्द प्रभु येसु में तथा उनके ईश्वर की ओर से उद्धार का निर्णायक वचन होने में महान विश्वास को व्यक्त करते हैं।
ईश्वर में आस्था और दूसरों पर ध्यान देने के बीच संबंध
कपुचिन पुरोहित एक अन्य पहलू पर भी प्रकाश डालते हैं: रोमी शतपति यह प्रदर्शित करता है कि ईश्वर में विश्वास और अपने पड़ोसी के प्रति ध्यान "पृथक" या "विषम" नहीं हैं। वास्तव में, "ईश्वर में हमारा विश्वास इस हद तक प्रामाणिक है कि हम मानते हैं कि हमारे द्वारा अनुभव किए जानेवाले रिश्तों में विश्वास और दयालुता कभी भी जरूरत से ज़्यादा नहीं होती है।" यह केवल थोड़ी सौहार्दपूर्ण भावना दिखाने की बात नहीं है, बल्कि "हमेशा दूसरों के स्थान पर स्वयं को रखने का समय और तरीका खोजने" की बात है, उस प्रभु का अनुसरण करने की बात है जो हमें कभी असहज महसूस नहीं होने देता, "तब भी नहीं जब हम पाप में फंस जाते हैं ", क्योंकि "यह प्रेम ही है जो दूसरे को करीब लाता है, एक प्रकाश जो हमेशा चमकता रहता है, यहां तक कि अंधेरे में भी।"
आस्तिक होने का मतलब है अपनी मानवता का विस्तार करना
वह शताधिपति जो हर चीज और हर किसी पर भरोसा करता है, यहां तक कि ऐसे संदर्भ में भी जहां कठिनाइयों की कमी नहीं थी, वह एक "स्पष्ट, खुले, स्वस्थ, दृश्यमान" मानवता की अभिव्यक्ति है, "हमारे लिए और हमारे विश्वास के पथ के लिए एक मजबूत अनुस्मारक है" जिसमें हम अक्सर खुद को बंद, अविश्वासी और स्वार्थी पाते हैं।" फादर पसोलिनी ने दोहराया कि आस्तिक होने का अर्थ है अपनी मानवता और दयालुता का विस्तार करना और उसे बढ़ाना, अन्यथा हम यह सोचकर खुद को धोखा देते हैं कि हम ईश्वर की छाया में शरण ले रहे हैं ताकि हम ईश्वर पर, अपने पड़ोसी पर, अपने आपमें और दूसरों पर थोड़ा कम भरोसा करने के लिए अधिकृत हों।
संत जोसेफ, विश्वास का प्रतीक
इसके बाद, कपुचिन फादर संत जोसेफ पर ध्यान केंद्रित किया - जिनके लिए पोप फ्राँसिस ने प्रेरितिक पत्र पात्रिस कॉर्दे को समर्पित किया था जिसमें "खुद पर नहीं, बल्कि परिस्थितियों से शुरू करके खुद को फिर से परिभाषित करने के लिए तैयार हैं।" यह महज संयोग नहीं है कि ऐसे समाज में जहाँ महिलाओं को पुरुषों द्वारा परिभाषित किया जाता था, यूसुफ को “मरियम का पति” कहा गया। यद्यपि मरियम की अकल्पनीय गर्भावस्था से विचलित होकर, वह क्रोध से प्रतिक्रिया नहीं किया, नहीं भागा, बल्कि वहीं रहता और कोमलता से सबसे कमजोर के पास खड़ा रहा: कुँवारी मरियम और बच्चे के पास। फादर पसोलिनी ने दोहराया कि जोसेफ न्याय की मांग नहीं करता और न ही उसे अपने हाथ में लेता है, बल्कि वह स्वयं को उस स्थिति के अनुसार ढाल लेता है जिसमें वह स्वयं को पाता है। किसी भी निष्क्रिय या पराजयवादी रवैये से दूर, वह "साहसी नायकत्व" का एक उदाहरण है।
प्रेम की पराकाष्ठा
प्रभु पर भरोसा करते हुए, येसु के पालक पिता को एक महत्वपूर्ण बात का आभास होता है: जितना उसने सोचा था उससे अधिक प्रेम करना आवश्यक है। एक सबक जो हमारे लिए भी मान्य है: जब हम खुद को जटिल परिस्थितियों में पाते हैं, तो कपुचिन फादर बताते हैं, हम घबराहट या क्रोध से ग्रस्त होकर, सोचना बंद न करें, बल्कि हम केवल समस्या से बचने की कोशिश करते हैं, भले ही हम डरते हों। "वास्तविकता का सामना करें" , क्योंकि हम नहीं चाहेंगे कि हमें दूसरों के जीवन में स्वयं को अधिक शामिल करने की अपील को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जाए।" जब हमें सीमा तक धकेला जाता है, तो “हम परिस्थितियों को बदलना चाहते हैं।”
ईश्वर का प्रकाश सबसे अंधकारमय क्षणों में भी चमकता है
हालांकि, फादर पसोलिनी याद करते हैं, "न्याय का सबसे प्रामाणिक कार्य कभी भी यह तय करने में नहीं होता कि हमें क्या परेशान करता है या क्या पसंद नहीं है, बल्कि खुद को बदलने की कोशिश करना, हमारे आस-पास के लोगों की जरूरतों या कठिनाइयों के आधार पर हमारी अपेक्षाओं को नया आकार देना है।"
इसलिए, संत जोसेफ की तरह, हमारे जीवन के महत्वपूर्ण और अंधकारमय क्षणों में, जब हमें लगता है कि हम कोई अत्यंत महत्वपूर्ण चीज खो रहे हैं, तो ईश्वर हमेशा प्रकाश जलाते हैं, हमारी रचनात्मकता को प्रेरित करते हैं और हमें सिखाते हैं कि हम अपने सपनों को न छोड़ें, बल्कि उन्हें जीएं, एक अलग तरीके से।
शुद्धता, स्वार्थ से दूर रहना
फादर पसोलिनी ने आगे एक और बात पर जोर दिया: वास्तविकता का स्वागत करने के लिए संत जोसेफ द्वारा प्रदर्शित इच्छा शुद्धता के अलावा और कुछ नहीं है, जिसे केवल शारीरिक अर्थ में नहीं, बल्कि व्यापक अर्थ में स्वार्थ से दूर रहने और "परमात्मा के संपर्क में रहने की क्षमता" के रूप में समझा जाता है। एक दूसरे के साथ, उनकी लय और समय का सम्मान करते हुए”, “पारस्परिक देखभाल और ध्यान के आदान-प्रदान में।”
उपदेशक कहते हैं, "आज के युग में जब हम स्वयं पर अधिक ध्यान देते हैं, अपनी मानवता के लिए बेकार और हानिकारक बलिदानों से बचते हैं, सामूहिक जोखिम स्वार्थ में फंसने का हो सकता है, जिसमें दूसरे पीछे रह जाते हैं।" इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रेम और समर्पण के इतने सारे मार्ग आसानी से क्यों बाधित हो जाते हैं।" फिर भी, ठीक इसी ऐतिहासिक क्षण में, हम सभी “जोसेफ की तरह, एक स्वतंत्र हृदय में निहित प्रामाणिक रिश्तों” की गहन इच्छा महसूस करते हैं, जो “उदारता का एक ज्वलंत उदाहरण” है।
प्रभु पर भरोसा रखते हुए वास्तविकता को अपनाना
उपदेशक ने अंत में कहा कि आगमन के समय में, यह निमंत्रण दिया जाता है कि हम उस "विश्वास के द्वार" को पार करें, जिसका संकेत नबी, शतपति और संत जोसेफ ने दिया था, क्योंकि केवल ईश्वर की ओर अपनी दृष्टि केंद्रित करके और उनमें विश्वास करके ही, अपने आप में और दूसरों में हम जानेंगे कि कैसे "अपने आस-पास अच्छाई को देखना है" और "वास्तविकता को तब भी अपना पायेंगे जब वह असुविधाजनक और घृणित हो, न्याय की तलाश न करें, बल्कि अपने दिल को ठीक करने की कोशिश करें", यह समझें कि यह कैसे " अच्छा" एक खुशी का स्थान हो सकता है, क्योंकि यह वह स्थान है जहां प्रभु ने हमेशा के लिए हमारे साथ रहने के लिए चुना है।"
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